'कालकूट' रिव्यू: विजय वर्मा की दमदार परफॉरमेंस ने डाली जान, सोच के अंधेरे कोनों को स्क्रीन पर उघाड़ती है कहानी
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जियो सिनेमा का नया शो 'कालकूट' आ चुका है. एक लड़की पर एसिड अटैक की कहानी से शुरू होती है और उन अंधेरे कोनों में ले जाती है जो हमारे घरों, हमारे समाज में खूब भरे पड़े हैं. इस कहानी को विजय वर्मा का लीड किरदार बेहतरीन तरीके से आगे बढ़ाता है. शो में विजय की परफॉरमेंस एक बार फिर दर्शकों को उनका फैन बना देगी.
इंडियन सिनेमा के पक्के वाले फैन्स के लिए इस बात से इनकार कर पाना मुश्किल है कि उनके अंदर एक विजय वर्मा फैन रहता है. डार्लिंग्स, दहाड़ और लस्ट स्टोरीज 2 जैसे प्रोजेक्ट्स में विजय ने इतने बेहतरीन नेगेटिव रोल निभाए हैं कि इस बार स्क्रीन पर उनका किरदार देखकर लगता रहता है कि कुछ न कुछ कांड बस होने ही वाला है. लेकिन 'कालकूट' ने एक साथ दो बड़े काम किए हैं- एक तो इस शो ने आखिरकार विजय वर्मा को हीरो बना दिया है. और दूसरा ये कि शो ऐसी कहानी कहता है जो लेंस का काम करती है. 'कालकूट' आपको अपने ही आसपास के उन अंधेरे कोनों को खोलकर दिखाता है, जो हैं तो बहुत डरावने. मगर उन्हें शर्म के पर्दों से बहुत खूबसूरती के साथ ढंक दिया जाता है.
इसी महीने आया नेटफ्लिक्स का शो 'कोहरा', एक बेहतरीन क्राइम थ्रिलर होने के साथ-साथ एक सॉलिड सोशल स्टडी की तरह था. 'कालकूट' की भी लगभग कुछ ऐसा ही करता है, लेकिन दोनों शोज अपनी बात बहुत अलग भाषा में कहते हैं. एकदम अलग-जमीन से निकलीं ये दोनों कहानियां एक दूसरे को जैसे पूरा करती हैं. मगर 'कालकूट' की सिनेमेटिक भाषा और स्टाइल में एक रिस्क है, जो इसका थोड़ा सा नेगेटिव पक्ष है. लेकिन चाहे टेक्निकल डिटेल्स हों, परफॉरमेंस हो या फिर सोशल नैरेटिव... 'कालकूट' हर तरह से एक जरूर देखे जाने लायक शो है.
कहानी में छुपा 'कालकूट' रवि शंकर त्रिपाठी एक पुलिस ऑफिसर है जो तीन महीने में ही अपनी नौकरी से तंग आ चुका है. एक क्रांतिकारी सोच वाले प्रोफेसर-कवि का बेटा रवि (विजय वर्मा), उन तौर तरीकों में खुद को एडजस्ट नहीं कर पा रहा जिनसे 'सिस्टम' चलता है. गालियां देना, करप्शन में हाथ फंसाना और नेताओं के ईगो सहलाना वगैरह रवि के बस की बात नहीं है. अपनी आदर्शवादी सोच के साथ जी रहे रवि के किरदार में हर उस चीज की कमी है जिसे ट्रेडिशनली 'मर्दानगी' का सिंबल माना जाता है.
तीन ही महीने में नौकरी छोड़ने चले रवि का इस्तीफा भी उसका सीनियर नामंजूर कर देता है और उसे एक नया केस थमा देता है. ये केस है कोचिंग के बाहर एक लड़की पर हुए एसिड अटैक का. केस की जांच शुरू होती है तो इस लड़की, पारुल (श्वेता त्रिपाठी शर्मा) की पर्सनल लाइफ खुलने लगती है. पुलिसवालों का मानना है कि लड़की 'कैरेक्टरलेस' थी इसलिए ऐसा हुआ. लड़की का बाप तक ये मानता है कि लड़की उसके 'हाथ से निकल गई थी'.
सिर्फ रवि है जिसके पास भयानक अपराध का शिकार हुई लड़की के लिए सहानुभूति की नजर है. लेकिन केस सॉल्व करने का मतलब ही उस सिस्टम में गले तक घुसना है जो वो 'मर्दानगी' दिखानी पड़ेगी जो उसका सीनियर जगदीश, एक पुलिसवाले में होने की उम्मीद करता है. माइथोलॉजी में 'कालकूट' उस विष का नाम है जो समुद्र मंथन से निकला था. ये वेब सीरीज परत दर परत दिखाती है कि ये ट्रेडिशनल मर्दानगी वाली सोच कैसा जहर है. लेकिन क्या रवि इसे पीने के लिए तैयार है?
पर्दों से ढंके अंधेरे कमरे केस सॉल्व करने निकले रवि के जरिए आपको नजर आता है कि ये 'कालकूट' घरों में, इस कदर घुला हुआ है कि इसे मथकर निकालना नामुमकिन है. रवि की मां हर काम के लिए उससे पूछती रहती है. जब वो इस बात से चिढ़ता है तो वो कहती है- 'हर बात पूछ-पूछकर करने की आदत पड़ चुकी है, अब तुम ही तो इस घर में अकेले मर्द हो तो और किस्से पूछें?'
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