Yodha Review: ढीले स्क्रीनप्ले की सिद्धार्थ मल्होत्रा ने बचाई लाज, जबरदस्त एक्शन से भरी है 'योद्धा'
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सिद्धार्थ मल्होत्रा स्टारर फिल्म 'योद्धा' रिलीज हो गई है. इस फिल्म में राशि खन्ना और दिशा पाटनी ने भी काम किया है. एक्शन से भरी इस फिल्म को देखने का प्लान अगर आप बना रहे हैं, तो पहले हमारा रिव्यू पढ़ लीजिए.
Yodha Review: योद्धा शब्द जब हम सुनते हैं तो हमारे दिमाग में ऐसा शख्स आता है, जो जाबाज हो और किसी भी मुश्किल का सामना हिम्मत और साहस से कर जाए. कुछ ऐसा फिल्म 'योद्धा' में सिद्धार्थ मल्होत्रा भी करते नजर आ रहे हैं. फिल्म की कहानी अरुण कटयाल नाम के सोल्जर की, जो अपने पिता जैसा योद्धा बनना चाहता था और बना भी. लेकिन एक गड़बड़ के चलते उसका सपना और परिवार दोनों बिखर गए.
फिल्म की शुरुआत होती है अरुण के अपने पिता सुरेंद्र कटयाल (रोनित रॉय) की की कहानी सुनाने से. सुरेंद्र एक जाबाज सिपाही थे, जिन्होंने 'योद्धा' टास्क फोर्स की शुरुआत की थी. एक योद्धा वो जवान है, जो जल-थल और वायु के जवानों की ताकत रखता है. इस स्पेशल टास्क फोर्स में काम करने वाले जवानों को खतरनाक मिशन दिए जाते हैं. पिता सुरेंद्र कटयाल से प्रेरित होकर अरुण कटयाल (सिद्धार्थ मल्होत्रा) भी एक योद्धा बन गया है, जो किसी भी मुश्किल हालात में पीछे रुकने वालों में से नहीं है. उसकी यही आदत उसकी सबसे बड़ी परेशानी बनती है.
अरुण कटयाल एक हाइजैक सिचुएशन में लोगों को बचाने में फेल हो जाता है. अपनी गलती न होने के बावजूद इसकी सजा अरुण के साथ-साथ उसकी पूरी योद्धा टीम को भुगतानी पड़ती है. अपनी टीम और खुद के लिए अरुण सरकार से लड़ाई करता है. इस बीच उसकी पर्सनल लाइफ भी बिगड़ तहस-नहस हो जाती है. इसके बाद इन फ्लाइट कमांडो के रूप में अरुण कटयाल एक प्लेन में सवार होता है और इस फ्लाइट के हाइजैक होने पर शक के घेरे में आ जाता है. अरुण ऐसा क्यों कर रहा है और इसके पीछे का मकसद क्या है यही फिल्म में देखने वाली बात है.
डायरेक्शन और स्क्रीनप्ले
डायरेक्टर सागर आम्ब्रे और पुष्कर ओझा की जोड़ी ने इस फिल्म को मिलकर बनाया है. सागर आम्ब्रे ने फिल्म की कहानी को भी लिखा है. पेपर पर फिल्म की कहानी को पढ़कर जरूर लोगों को ये कमाल लगी होगी, लेकिन इसे पर्दे पर उतारना अलग ही बात थी. 'योद्धा' को सिल्वर स्क्रीन पर उतारने में सागर आम्ब्रे और पुष्कर ओझा पूरी तरह कामयाब नहीं रहे. ये फिल्म एक टेंशन भरे माहौल में जवानों के तैनात होने से शुरू होती है. यहां ऑर्डर न मिलने के बावजूद सिद्धार्थ मल्होत्रा का किरदार अरुण कटयाल आतंकवादियों से लड़ता है. उसकी मदद के लिए उसका कोई जवान भी नहीं आता. वो खुद ही हीरो की तरह हर किसी को मार रहा है और फिर भागते हुए आतंकवादियों का पीछा कर रहा है.
ऐसे और भी बहुत से सीन्स हैं, जिन्हें देखकर आपको लगेगा कि ये क्या हो रहा है. किरदार को भागने के लिए बोला जाए तो वो वही खड़ा है, क्योंकि माहौल बनाना है. एक पूरा किरदार इस फिल्म में ऐंवई रख लिया गया है. वो कौन है, कहां से आया, क्या मकसद है उसका, क्या महत्व है उसका कुछ भी नहीं. बस वो वहां है. उसके होने न होने से कोई फर्क नहीं पड़ता, लेकिन अब एक्टर को ले लिया गया है तो कैमरा उसकी तरफ भी घुमाना ही होगा. उसके एक्सप्रेशन भी दिखाने होंगे. फिल्म की ये कमियां आप इग्नोर करना चाहते हैं, लेकिन कर नहीं पाते. इसका डायरेक्शन और बेहतर हो सकता था.
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