Matto Ki Saikil Movie Review: मट्टो का हीरो है साइकिल और फिल्म के हीरो हैं प्रकाश झा
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Matto Ki Saikil: एम गनी के डायरेक्शन में बनी फिल्म मट्टो की साइकिल में प्रकाश झा ने खुद को झौंक दिया है और एक आग में तपे लोहे की तरह मजबूत एक्टर के रूप में निखरते नजर आते हैं. आखिरी के सीन्स पर उनकी बेबसी और लाचारी देखकर इतने कन्विंस हो जाते हैं कि वो गम अपना सा लगने लगता है.
Matto Ki Saikil Movie Review: गंगाजल, राजनीति, आश्रम जैसी फिल्मों का निर्देशन कर चुके प्रकाश झा इंडस्ट्री के फाइनेस्ट डायरेक्टर की लिस्ट में तो हैं ही, लेकिन एक्टर के तौर भी दर्शकों को सरप्राइज करने से नहीं चूकते हैं. एम गनी के डायरेक्शन में बनी फिल्म मट्टो की साइकिल में प्रकाश झा ने खुद को झौंक दिया है और एक आग में तपे लोहे की तरह मजबूत एक्टर के रूप में निखरते नजर आते हैं.
कहानी फिल्म की कहानी है मट्टो की, लेकिन इसमें मट्टो की साइकिल हीरो के रूप में नजर आती है. मथुरा शहर से सटे कस्बे में रहने वाले मट्टो की जिंदगी का हीरो है उसकी साइकिल. मट्टो रोजाना अपनी साइकिल पर सवार होकर कोसों दूर दिहाड़ी मजदूरी के लिए जाता है. रोजाना की कमाई से जैसे- तैसे अपने घर का पालन-पोषण करता है. मट्टो के परिवार में उनकी पत्नी और दो बेटियां हैं. एक दिन काम से वापस लौट रहा मट्टो सब्जी खरीदने के लिए जब सड़क के पार साइकिल उतारता है, तो दूर से आता ट्रैक्टर उसकी साइकिल को रौंदते हुए निकल जाता है. अपने हीरो को यूं मरता देख मट्टो का दिल टूटता है. फिर यहां से शुरू होती है मट्टो की दूसरे साइकिल को खरीदने की जद्दोजहद. क्या मट्टो दूसरी साइकिल खरीद पाता है और कहानी किस तरह से आगे बढ़ती है, यह जानने के लिए थिएटर की ओर रूख करें.
डायरेक्शन बताते चलें एम गनी की इस फिल्म का 2020 में बुसान फिल्म फेस्टिवल पर प्रीमियर किया जा चुका है. फिल्म हमारे देश के क्लास डिवीजन, पॉलिटिकल और एडमिनिस्ट्रेशन सिस्टम पर कटाक्ष है. यह फिल्म आपको ऐसी दुनिया में लेकर जाती है, जिस पर शायद हम जैसे प्रीविलेज्ड लोग बात करने से कतराते हैं. डायरेक्शन की बात करें तो फिल्म का पहला हाफ साइकिल की धुरी पर घूम रही मट्टो की जिंदगी को स्टैबलिश करने पर फोकस्ड है, जिससे फिल्म थोड़ी स्लो हो जाती है. इस वजह से खुद को बांध पाना थोड़ा मुश्किल हो जाता है.
वहीं कहानी की असल शुरूआत तब मानी जाती है, जब मट्टो की साइकिल ट्रैक्टर के नीचे आकर टूटती है. सेकेंड हाफ में मट्टो की लाचारी, बेबसी आपको इमोशनली बहुत डिस्टर्ब करती है. दावा है कहानी के क्लाइमैक्स पर आपकी आंखें नम हो जाएंगी. कहानी जिस मोड़ पर आकर खत्म हुई है, वो थोड़ा डिस्टर्बिंग है और आपको सिस्टम को कोसने पर मजबूर होते हैं. क्लाइमैक्स खास इसलिए भी है क्योंकि ओपन एंड रखा गया है. 'सारे जहां से अच्छा हिंदुस्तान हमारा ' गाने का म्यूजिक और झंडे पर फोकस करते हुए खत्म हुई फिल्म आपको झकझोर देगी. फिल्म में कई ऐसे सीन्स हैं, जैसे प्रधान का इलेक्शन जीतने पर मट्टो का प्रधान को गोदी पर उठाकर नाचना, पथरी के इलाज की वजह से अस्पताल में एडमिट बीवी के लिए फल लेते वक्त दुकानदार संग होता संवाद, बेटी की शादी का रिश्ता लेकर जाने पर लड़के वालों से दहेज के रूप में बाइक की डिमांड, साइकिल चलाते वक्त कार से टक्कर होना और कार वाले का रौब दिखाना, दूसरी साइकिल के पाई-पाई पैसे का जुगाड़ करना, ये ऐसे कई सीन्स हैं, जो अंडरकरंट आपको हमारे समाज में चलते आ रहे क्लास डिफरेंस और सिस्टम पर सवाल उठाते नजर आते हैं.
टेक्निकल फिल्म को बहुत ही खूबसूरती से फिल्माया गया है. स्क्रीन पर देखते हुए आप वाकई ही मट्टो की दुनिया में प्रवेश करने लगते हैं. यहां डीओपी चंदन कोवली ने अपना काम उम्मीद से बेहतर किया है. गांव कस्बे की तंग गलियां, मट्टो का आधा कच्चा मकान, सरकारी अस्पताल सारी चीजें फ्रेम दर फ्रेम परफेक्ट तरीके से कैप्चर की गई हैं. एडिटिंग के नजरिए से देखा जाए, तो कामेश कर्ण फर्स्ट हाफ को थोड़ा क्रिस्प कर कम कर सकते थे ताकि दर्शकों का कनेक्शन बना रहे.
एक्टिंग फिल्म की जान है इसकी कास्टिंग, हर किरदार एक से बढ़कर एक और सहज लगता है. ऐसा मानों फिल्म के सारे किरदार उसकी कस्बे से उठाकर कास्ट कर लिए गए हों. प्रकाश झा ने मट्टो को जीवंत कर दिया है. आखिरी के सीन्स पर उनकी बेबसी और लाचारी देखकर इतने कन्विंस हो जाते हैं कि वो गम अपना सा लगने लगता है. मट्टो की पत्नी के रूप में अनिता चौधरी ने अपना काम सहजता से किया है. दोनों बेटियों के रूप में आरोही शर्मा और इदिका रॉय ने भी अपना काम इमानदारी से निभाया है.
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