Maidaan Review: जोश-जज्बे और बहुत सारे इमोशन्स से भरी है 'मैदान', बेमिसाल हैं अजय देवगन
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हमारे देश के इतिहास में ऐसे कई लोग रहे हैं, जिन्होंने हमारे देश को ऐसे मुकाम पर पहुंचाया, जिसकी उम्मीद किसी ने कभी की ही नहीं थी. ऐसे ही एक शख्स थे सैयद अब्दुल रहीम. अब रहीम की कहानी को सुपरस्टार अजय देवगन अपनी फिल्म 'मैदान' के साथ पर्दे पर लाए हैं. फिल्म देखने से पहले पढ़िए हमारा रिव्यू.
हम सभी को सुपरहीरोज की कहानियां पसंद होती हैं. सुपरमैन, बैटमैन, स्पाइडर-मैन... सुपरहीरो हमारे बीच रहने वाले आम दिखने वाले लोग ही तो होते हैं, जिनके पास हमसे थोड़ी ज्यादा ताकत होती है. जो हर मुश्किल का सामना करने के लिए सबसे आगे होते हैं. जिनके लिए मुश्किल से मुश्किल चीज मुमकिन होती है. जिंदगी की भागदौड़ में हम काल्पनिक कहानियों में इतना खो जाते हैं कि असल जिंदगी के 'सुपरहीरोज' पर हमारा ध्यान ही नहीं जाता. ऐसे ही एक अनजाने 'सुपरहीरो' की कहानी को फिल्म 'मैदान' के साथ लेकर अजय देवगन बड़े पर्दे पर आए हैं.
क्या है फिल्म की कहानी?
हमारे देश के इतिहास में ऐसे कई लोग रहे हैं, जिन्होंने हमें दुनिया की नजरों में जगह दी. एक ऐसे मुकाम पर पहुंचाया, जिसकी उम्मीद किसी ने कभी की ही नहीं थी. ऐसे ही एक शख्स थे सैयद अब्दुल रहीम. रहीम साहब ही वो शख्स हैं जिन्होंने भारत की कई फुटबॉल टीम को एशियन गेम्स में उसका पहला गोल्ड मेडल दिलवाया था. उनकी हिम्मत और जज्बे पर बनी फिल्म 'मैदान' काफी धमाकेदार है. इस फिल्म में फुटबॉल के साथ-साथ पॉलिटिक्स, रोमांच और इमोशन्स भी हैं.
फिल्म की कहानी की शुरुआत होती है साल 1952 से, फुटबॉल के मैच को भारत के खिलाड़ी नंगे पैर खेल रहे हैं. किसी के पैर में चोट लगती है तो कोई दूसरे खिलाड़ी को टैकल करने में पीछे रह जाता है. इसी तरह भारतीय टीम मैच हार जाती है. कलकत्ता के फेडरेशन ऑफिस में भारतीय फुटबॉल टीम की हार का ठीकरा सैयद अब्दुल रहीम (अजय देवगन) के सिर फोड़ा जाता है. रहीम कहते हैं कि अगर हार की जिम्मेदारी उनकी है तो अपनी टीम का चुनाव भी वो खुद करेंगे. इसके बाद वो निकल पड़ते हैं देशभर में अपनी टीम के लिए बेस्ट खिलाड़ियों की तलाश करने.
कलकत्ता से लेकर सिकंदराबाद, केरल और यहां तक की पंजाब तक घूम-घूमकर रहीम अपनी टीम तैयार करते हैं. इस टीम में पीके बनर्जी (चैतन्य शर्मा), चुनी गोस्वामी (अमर्त्य रे), जरनैल सिंह (दविंदर गिल), तुलसीदास बलराम (सुशांत वेदांडे) और पीटर थंगराज (तेजस रविशंकर) संग कई बढ़िया खिलाड़ी शामिल हैं. यही वो टीम है जिनके साथ खून पसीने की मेहनत कर रहीम एशियन गेम्स स्वर्ण पदक जीतना चाहते हैं.
फेडरेशन में बैठे शुभांकर सेनगुप्ता, रहीम साहब को पसंद नहीं करते और टॉप न्यूजपेपर के सीनियर जर्नलिस्ट रॉय चौधरी (गजराज राव) रहीम को भारतीय फुटबॉल टीम के कोच की पोजीशन से बेदखल करने के लिए ऐड़ी-चोटी का जोर लगा रहे हैं. इस मंजिल में ढेरों कांटे हैं, एक से बढ़कर एक चुनौती है और दुश्मन जब घर के अंदर ही बैठा हो, तो मंजिल तक पहुंचना और मुश्किल हो जाता है. ऐसे में किस तरह सैयद अब्दुल रहीम और उनकी फुटबॉल टीम एशियन गेम्स 1962 के स्वर्ण पदक तक पहुंचेगी, यही फिल्म में देखने वाली बात है.
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