रामचरितमानस: क्यों 14 वर्ष बीतने पर भी लंका नहीं गए श्रीराम? भरत को लेकर क्या था डर!
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जानें आखिर क्यों 14 साल बीतने के बाद भी लंका नहीं गए भगवान श्रीराम, भरत को लेकर क्या था डर!
सिर और भुजाएं बहुत बार काटी गईं. फिर भी वीर रावण मरता नहीं. प्रभु तो खेल कर रहे हैं, परन्तु मुनि, सिद्ध और देवता उस क्लेश को देखकर प्रभु को क्लेश पाते समझकर व्याकुल हैं. काटते ही सिरों का समूह बढ़ जाता है, जैसे प्रत्येक लाभ पर लोभ बढ़ता है. शत्रु मरता नहीं और परिश्रम बहुत हुआ. तब श्री रामचंद्रजी ने विभीषण की ओर देखा. जिसकी इच्छा मात्र से काल भी मर जाता है, वही प्रभु सेवक की प्रीति की परीक्षा ले रहे हैं. विभीषणजी ने कहा- हे सर्वज्ञ! हे चराचर के स्वामी! हे शरणागत के पालन करने वाले! हे देवता और मुनियों को सुख देने वाले! सुनिए-इसके नाभिकुंड में अमृत का निवास है. हे नाथ! रावण उसी के बल पर जीता है. विभीषण के वचन सुनते ही कृपालु श्री रघुनाथजी ने हर्षित होकर हाथ में विकराल बाण लिए. उस समय नाना प्रकार के अपशकुन होने लगे. बहुत से गदहे, स्यार और कुत्ते रोने लगे. जगत् के दुःख (अशुभ) को सूचित करने के लिए पक्षी बोलने लगे. आकाश में जहां-तहां केतु (पुच्छल तारे) प्रकट हो गए. दसों दिशाओं में अत्यंत दाह होने लगा (आग लगने लगी) बिना ही पर्व (योग) के सूर्यग्रहण होने लगा. मंदोदरी का हृदय बहुत कांपने लगा. मूर्तियां नेत्र मार्ग से जल बहाने लगीं.
मूर्तियां रोने लगीं, आकाश से वज्रपात होने लगे, अत्यंत प्रचण्ड वायु बहने लगी, पृथ्वी हिलने लगी, बादल रक्त, बाल और धूल की वर्षा करने लगे. इस प्रकार इतने अधिक अमंगल होने लगे कि उनको कौन कह सकता है? अपरिमित उत्पात देखकर आकाश में देवता व्याकुल होकर जय-जय पुकार उठे. देवताओं को भयभीत जानकर कृपालु श्री रघुनाथजी धनुष पर बाण सन्धान करने लगे. कानों तक धनुष को खींचकर श्री रघुनाथजी ने इकतीस बाण छोड़े. वे श्री रामचंद्रजी के बाण ऐसे चले मानो कालसर्प हों. एक बाण ने नाभि के अमृत कुंड को सोख लिया. दूसरे तीस बाण कोप करके उसके सिरों और भुजाओं में लगे. बाण सिरों और भुजाओं को लेकर चले. सिरों और भुजाओं से रहित रुण्ड (धड़) पृथ्वी पर नाचने लगा. धड़ प्रचण्ड वेग से दौड़ता है, जिससे धरती धंसने लगी. तब प्रभु ने बाण मारकर उसके दो टुकड़े कर दिए. मरते समय रावण बड़े घोर शब्द से गरजकर बोला- राम कहां हैं? मैं ललकारकर उनको युद्ध में मारूं! रावण के गिरते ही पृथ्वी हिल गई. समुद्र, नदियां, दिशाओं के हाथी और पर्वत क्षुब्ध हो उठे. रावण धड़ के दोनों टुकड़ों को फैलाकर भालू और वानरों के समुदाय को दबाता हुआ पृथ्वी पर गिर पड़ा. रावण की भुजाओं और सिरों को मंदोदरी के सामने रखकर रामबाण वहां चले, जहां जगदीश्वर श्री रामजी थे. सब बाण जाकर तरकस में प्रवेश कर गए. यह देखकर देवताओं ने नगाड़े बजाए. रावण का तेज प्रभु के मुख में समा गया. यह देखकर शिवजी और ब्रह्माजी हर्षित हुए. ब्रह्माण्डभर में जय-जय की ध्वनि भर गई. प्रबल भुजदंडों वाले श्री रघुवीर की जय हो.
देवता और मुनियों के समूह फूल बरसाते हैं और कहते हैं- कृपालु की जय हो, मुकुन्द की जय हो, जय हो! हे कृपा के कंद! हे मोक्षदाता मुकुन्द! हे (राग-द्वेष, हर्ष-शोक, जन्म-मृत्यु आदि) द्वंद्वों के हरने वाले! हे शरणागत को सुख देने वाले प्रभो! हे दुष्ट दल को विदीर्ण करने वाले! हे कारणों के भी परम कारण! हे सदा करुणा करने वाले! हे सर्वव्यापक विभो! आपकी जय हो. देवता हर्ष में भरे हुए पुष्प बरसाते हैं, घमाघम नगाड़े बज रहे हैं. रणभूमि में श्री रामचंद्रजी के अंगों ने बहुत से कामदेवों की शोभा प्राप्त की. सिर पर जटाओं का मुकुट है, जिसके बीच में अत्यंत मनोहर पुष्प शोभा दे रहे हैं. मानो नीले पर्वत पर बिजली के समूह सहित नक्षत्र सुशोभित हो रहे हैं. श्री रामजी अपने भुजदण्डों से बाण और धनुष फिरा रहे हैं. शरीर पर रुधिर के कण अत्यंत सुंदर लगते हैं. मानो तमाल के वृक्ष पर बहुत सी ललमुनियां चिड़ियां अपने महान सुख में मग्न हुई निश्चल बैठी हों. प्रभु श्री रामचंद्रजी ने कृपा दृष्टि की वर्षा करके देव समूह को निर्भय कर दिया. वानर-भालू सब हर्षित हुए और सुखधाम मुकुन्द की जय हो, ऐसा पुकारने लगे. पति के सिर देखते ही मंदोदरी व्याकुल और मूर्च्छित होकर धरती पर गिर पड़ी. स्त्रियां रोती हुई दौड़ीं और उस (मंदोदरी) को उठाकर रावण के पास आईं. पति की दशा देखकर वे पुकार-पुकारकर रोने लगीं. उनके बाल खुल गए, देह की संभाल नहीं रहीं. वे अनेकों प्रकार से छाती पीटती हैं और रोती हुई रावण के प्रताप का बखान करती हैं.
वे कहती हैं- हे नाथ! तुम्हारे बल से पृथ्वी सदा कांपती रहती थी. अग्नि, चंद्रमा और सूर्य तुम्हारे सामने तेजहीन थे. शेष और कच्छप भी जिसका भार नहीं सह सकते थे, वही तुम्हारा शरीर आज धूल में भरा हुआ पृथ्वी पर पड़ा है! वरुण, कुबेर, इंद्र और वायु, इनमें से किसी ने भी रण में तुम्हारे सामने धैर्य धारण नहीं किया. हे स्वामी! तुमने अपने भुजबल से काल और यमराज को भी जीत लिया था. वही तुम आज अनाथ की तरह पड़े हो. तुम्हारी प्रभुता जगत भर में प्रसिद्ध है. तुम्हारे पुत्रों और कुटुम्बियों के बल का हाय! वर्णन ही नहीं हो सकता. श्री रामचंद्रजी के विमुख होने से तुम्हारी ऐसी दुर्दशा हुई कि आज कुल में कोई रोने वाला भी न रह गया. हे नाथ! विधाता की सारी सृष्टि तुम्हारे वश में थी. लोकपाल सदा भयभीत होकर तुमको मस्तक नवाते थे, किन्तु हाय! अब तुम्हारे सिर और भुजाओं को गीदड़ खा रहे हैं. राम विमुख के लिए ऐसा होना अनुचित भी नहीं है अर्थात उचित ही है. हे पति! काल के पूर्ण वश में होने से तुमने (किसी का) कहना नहीं माना और चराचर के नाथ परमात्मा को मनुष्य करके जाना. दैत्य रूपी वन को जलाने के लिए अग्निस्वरूप साक्षात श्री हरि को तुमने मनुष्य करके जाना. शिव और ब्रह्मा आदि देवता जिनको नमस्कार करते हैं, उन करुणामय भगवान को हे प्रियतम! तुमने नहीं भजा. तुम्हारा यह शरीर जन्म से ही दूसरों से द्रोह करने में तत्पर तथा पाप समूहमय रहा! इतने पर भी जिन निर्विकार ब्रह्म श्री रामजी ने तुमको अपना धाम दिया, उनको मैं नमस्कार करती हूं.
अहह! नाथ! श्री रघुनाथजी के समान कृपा का समुद्र दूसरा कोई नहीं है, जिन भगवान ने तुमको वह गति दी, जो योगी समाज को भी दुर्लभ है. मंदोदरी के वचन कानों में सुनकर देवता, मुनि और सिद्ध सभी ने सुख माना. ब्रह्मा, महादेव, नारद और सनकादि तथा और भी जो परमार्थवादी (परमात्मा के तत्त्व को जानने और कहने वाले) श्रेष्ठ मुनि थे. वे सभी श्री रघुनाथजी को नेत्र भरकर निरखकर प्रेममग्न हो गए और अत्यंत सुखी हुए. अपने घर की सब स्त्रियों को रोती हुई देखकर विभीषणजी के मन में बड़ा भारी दुःख हुआ और वे उनके पास गए. उन्होंने भाई की दशा देखकर दुःख किया. तब प्रभु श्री रामजी ने छोटे भाई को आज्ञा दी कि जाकर विभीषण को धैर्य बंधाओ. लक्ष्मणजी ने उन्हें बहुत प्रकार से समझाया. तब विभीषण प्रभु के पास लौट आए. प्रभु ने उनको कृपापूर्ण दृष्टि से देखा और कहा- सब शोक त्यागकर रावण की अंत्येष्टि क्रिया करो. प्रभु की आज्ञा मानकर और हृदय में देश और काल का विचार करके विभीषणजी ने विधिपूर्वक सब क्रिया की. मंदोदरी आदि सब स्त्रियां उसे रावण को तिलांजलि देकर मन में श्री रघुनाथजी के गुण समूहों का वर्णन करती हुई महल को गईं.
सब क्रिया-कर्म करने के बाद विभीषण ने आकर पुनः सिर नवाया. तब कृपा के समुद्र श्री रामजी ने छोटे भाई लक्ष्मणजी को बुलाया. श्री रघुनाथजी ने कहा कि तुम, वानरराज सुग्रीव, अंगद, नल, नील जाम्बवान और मारुति सब नीतिनिपुण लोग मिलकर विभीषण के साथ जाओ और उन्हें राजतिलक कर दो. पिताजी के वचनों के कारण मैं नगर में नहीं आ सकता. पर अपने ही समान वानर और छोटे भाई को भेजता हूं. प्रभु के वचन सुनकर वानर तुरंत चले और उन्होंने जाकर राजतिलक की सारी व्यवस्था की. आदर के साथ विभीषण को सिंहासन पर बैठाकर राजतिलक किया और स्तुति की. सभी ने हाथ जोड़कर उनको सिर नवाए. तदनन्तर विभीषणजी सहित सब प्रभु के पास आए. तब श्री रघुवीर ने वानरों को बुला लिया और प्रिय वचन कहकर सबको सुखी किया. भगवान ने अमृत के समान यह वाणी कहकर सबको सुखी किया कि तुम्हारे ही बल से यह प्रबल शत्रु मारा गया और विभीषण ने राज्य पाया. इसके कारण तुम्हारा यश तीनों लोकों में नित्य नया बना रहेगा. जो लोग मेरे सहित तुम्हारी शुभ कीर्ति को परम प्रेम के साथ गाएंगे, वे बिना ही परिश्रम इस अपार संसार का पार पा जाएंगे. प्रभु के वचन कानों से सुनकर वानर समूह तृप्त नहीं होते. वे सब बार-बार सिर नवाते हैं और चरणकमलों को पकड़ते हैं. फिर प्रभु ने हनुमानजी को बुला लिया. भगवान ने कहा- तुम लंका जाओ. जानकी को सब समाचार सुनाओ और उसका कुशल समाचार लेकर तुम चले आओ.
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