बंगाल का वह इलाका जहां सत्ता के खिलाफ रहा है जनादेश, क्या इसबार टूटेगा तिलिस्म?
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इस इलाके में क्षेत्रीय दल हावी रहे हैं. साल 1991 से अब तक, यानी पिछले तीन दशक के चुनाव परिणाम पर नजर डालें तो इसकी तस्दीक खुद-ब-खुद हो जाती है.
पश्चिम बंगाल की फिजां में चुनावी रंग घुल चुका है. वह भी इतना गाढ़ा, कि क्या कहने. सत्ताधारी तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) और विपक्षी भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के बीच बयानबाजियों के साथ ही आरोप-प्रत्यारोप का दौर भी जोरों पर है. टीएमसी सत्ता बचाए रखने का दावा कर रही है तो वहीं बीजेपी ममता बनर्जी की सरकार को उखाड़ फेंकने का दंभ भर रही है. ममता बनर्जी को लगी चोट के बाद टीएमसी का प्रचार अभियान और आक्रामक हो गया है, वहीं बीजेपी ने भी केंद्रीय मंत्रियों और अपनी सरकार वाले राज्यों के मुख्यमंत्रियों की फौज उतार दी है. हर कोई सरकार बनाने का दावा कर रहा है. सरकार बनाने के दावे हर खेमे से हो ही रहे हैं, एक-एक सीट को लेकर भी दावे किए जा रहे हैं. इसमें कुछ नया भी नहीं है. चुनावी बयार बहती है तो दावों का दौर भी चलता है, लेकिन इन दावों-प्रति दावों के बीच कुछ इलाके ऐसे भी हैं, जहां एक-दूसरे के विरोध की बुनियाद पर राजनीति करने वाले धुर विरोधियों के साथ आने से एक अलग ही रोमांच उत्पन्न हो गया है. ऐसा ही इलाका है उत्तर बंगाल का दार्जिलिंग के पर्वतीय क्षेत्र और कालिम्पोंग जिले का, जहां कभी बीजेपी के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) का घटक रहा गोरखा जन मुक्ति मोर्चा (गोजमुमो) इस बार टीएमसी के साथ गठबंधन कर चुनाव मैदान में है.डिप्टी सीएम मुकेश अग्निहोत्री ने कहा कि हम लगेज पॉलिसी लेकर आए हैं, जब भी हम कुछ लागू करते हैं, तो हमें सुझाव मिलते हैं, जनता की मांग थी कि दूध और सब्जी का उत्पादन करने वाले या सप्लाई करने वाले किसानों को हमारी बसों में रियायत दी जाए, हमने उनकी मांग को स्वीकार किया और दूध और सब्जी सप्लायरों के लिए टिकट हटा दिए हैं.
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