
Zwigato Review: बेशक जरूरी मुद्दे को दिखाती है फिल्म, लेकिन करेगी बोर, कपिल शर्मा का अच्छा काम
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Zwigato Film Review: कॉमेडी के बेताज बादशाह कपिल शर्मा जहां जाते हैं, लोगों के चेहरे पर मुस्कान तो आ ही जाती है. लेकिन अब कपिल अपनी इमेज से बिल्कुल विपरीत किरदार में नजर आने वाले हैं. डिलीवरी बॉय बने कपिल को फैंस भी देखकर हैरान हैं.
किसी ने यह उम्मीद नहीं की होगी कि टीवी पर सबको हंसते हंसाने वाले कपिल शर्मा एक गंभीर किरदार को सिल्वर स्क्रीन पर प्ले करेंगे. जी हां, कॉमेडी के बादशाह कपिल शर्मा को फिल्म ज्विगाटो में एक डिलीवरी बॉय के रूप में देखना फैंस व दर्शकों के लिए कुछ अलग तो जरूर होगा. अपने मिजाज से विपरीत फिल्म करना कपिल के लिए कितना चुनौतीपूर्ण रहा है और क्या दर्शक कपिल को इस रूप में एक्सेप्ट कर पाएंगे. ये सब जानने के लिए पढ़ें ये रिव्यू.
कहानी उड़ीसा की राजधानी भुवनेश्वर में अपने परिवार संग बसे मानस सिंह महतो (कपिल शर्मा) एक डिलीवरी बॉय का काम करते हैं. मानस एक फैक्ट्री में मैनेजर की पोस्ट पर थे लेकिन कोरोना के बाद हुई तबाही ने उनकी नौकरी छीन ली और अब परिवार चलाने के लिए वो ज्विगाटो कंपनी में डिलीवरी बॉय बन जाते हैं. मानस की पत्नी प्रतीमा (शाहना गोस्वामी) आर्थिक तंगी में पति को मदद करने के लिए बॉडी मसाज जैसा छोटा मोटा काम कर लेती है. कोरोना के बाद एक लोअर मीडिल क्लास फैमिली ने किस तरह का संघर्ष झेला है इस तर्ज पर कहानी आगे बढ़ती है. मानस की ख्वाहिश है कि वो एक दिन में 10 डिलीवरी कर अपना टारगेट पूरा करे. एक अच्छी रेटिंग पाने के लिए मानस की जद्दोजहद भी साफ नजर आती है. क्या मानस अपने टारगेट को पूरा कर पाता है? मानस की जिंदगी स्ट्रगल करते हुए कैसे आगे बढ़ती है? मानव के असल संघर्ष क्या हैं? यह सब जानने के लिए थिएटर की ओर रुख करें.
डायरेक्शन नंदिता दास की फिल्मों का एक अलग मिजाज रहा है. हार्ड कोर कमर्शल सिनेमा से दूर रहीं नंदिता की हमेशा कोशिश रही है कि वे परदे पर सच्चाई को परोस सकें. ज्विगाटो में भी नंदिता का यह प्रयास साफ नजर आता है. बता दें, नंदिता ने फिल्म के जरिए कोई मैसेज थोपने की कोशिश नहीं की है बल्कि उन्होंने बेरोजगारी जैसे मुद्दे को अड्रेस किया है, जिसे हमारी देश की आधी से ज्यादा आबादी झेल रही है. हमें देश में बेरोजगारी का हाल तो पता है लेकिन शायद ही हम कभी इस पर बात करते नजर आए हों. बस नंदिता ने हमारा फोकस इस मुद्दे से खींचने की कोशिश की है. अनइंप्लॉइमेंट के अलावा कहानी के जरिए वो कई और मुद्दों को भी सटल तरीके से दर्शा जाती हैं. मसलन एक सीन में जहां हाई सोसायटी में प्रतीमा को सर्वेंट लिफ्ट का इस्तेमाल करने को कहा जाता है.
वहीं एक सो कॉल्ड हाई क्लास की लड़की मसाज लेने से इसलिए मना कर देती हैं क्योंकि प्रतीमा उसे अनप्रफेशनल(गरीब) नजर आती है. यहां क्लास डिफरेंस का भी एक इश्यू साफ नजर आता है. वहीं एक मुस्लिम डिलीवरी बॉय का मंदिर के परिसर में नहीं जाना भी एक गहरी बात कह जाता है. नंदिता की इस फिल्म में कई ऐसे डायलॉग्स व सीन्स हैं, जो डायरेक्ट दिल पर जाकर लगते हैं. 'हम मजबूर हैं इसलिए मजदूर हैं' बोलना किरदार की बेबसी को दिखाता है. एक सीन जहां मानस के पास आकर दिहाड़ी मजदूर का नौजवान पूछता है कि क्या साइकिल से डिलीवरी कर सकते हैं? बेहतरीन रेटिंग्स पाने के लिए डिलीवरी बॉयज का स्ट्रगल भी इसमें साफ दिखेगा. दावा है फिल्म देखने के बाद उनके प्रति मानवता थोड़ी सी तो जरूर जगेगी.
फिल्म का ड्रॉ बैक बस यही है कि यह हद से ज्यादा स्लो है. कहानी में जानबूझकर कोई थ्रिल या हुक फैक्टर नहीं रखा गया है, तो शायद दर्शकों को बांधे रखने में मुश्किल आए. नंदिता ने बेशक एक बेहतरीन सब्जेक्ट को अड्रेस किया है, लेकिन उसके ट्रीटमेंट को देखकर लगता है कि उनकी मंशा कमर्शल दर्शकों को लुभाने की नहीं बल्कि फिल्म फेस्टिवल्स में फिल्म को दिखाने की रही होगी. कहानी में कोई रोचक फैक्टर नहीं होने की वजह से फिल्म फर्स्ट हाफ से लेकर सेकेंड हाफ तक फ्लैट लगती है. यहां दर्शकों को समझना होगा कि फिल्म एक मुद्दे और उसे पैदा हुए सिचुएशन पर फोकस है. एक लोअर मीडिल क्लास परिवार में बेरोजगारी का डर और मजबूरी कैसे हावी होती है, बस उसी का प्रेजेंटेशन है. ओवर ऑल फिल्म एक बहुत ही अच्छी इंटेंशन से बनाई गई है, लेकिन प्रेजेंटेशन के मामले में बहुत सी कमी नजर आती है.
एक्टिंग कपिल शर्मा जैसी शख्सियत का इस तरह का इंटेंस किरदार चुनना ही अपने आपमें एक नया प्रयास है. हालांकि कपिल पर उनका कॉमिडी मिजाज ही इतना हावी है कि दर्शकों के लिए उससे इतर कुछ देख पाना शायद मुश्किल हो. एक जॉनर के लिए कपिल का प्रयास सराहनीय है लेकिन स्क्रीन पर भी वो एफर्ट साफ नजर आता है. झारखंड के डायलेक्ट में भी कहीं कहीं कपिल की पंजाबियत आ ही जाती है. हो सकता है इस तरह की एक दो और फिल्में करने के बाद कपिल सहज हो जाएं. लेकिन ऐसी फिल्म का हिस्सा बनने का रिस्क लेना ही अपने आपमें एक अचीवमेंट वाली बात है. शाहना गोस्वामी प्रतीमा के किरदार में बहुत ही सहज लगती हैं. शाहना ने अपने किरदार के साथ सौ प्रतिशत न्याय किया है. वहीं बाकी किरदारों का सिलेक्शन भी नंदिता ने बखूबी किया है. उड़ीसा के फ्लेवर को सभी सपोर्टिव किरदारों ने बखूबी पकड़ा है.

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