
Savarkar Review: खोखली, एकतरफा फिल्म में एकमात्र अच्छी चीज है रणदीप हुड्डा की परफॉरमेंस
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आज के दौर में 'गुमनाम' हो चुके एक स्वतंत्रता नायक की कहानी कहने निकली ये फिल्म, एक अनजान कहानी बताने से ज्यादा अपने हीरो विनायक दामोदर सावरकर को बाकियों के मुकाबले अधिक 'वीर' बताने पर फोकस करने लगती है.
एक नया शुक्रवार और पॉलिटिक्स से खेलती एक और फिल्म... लेकिन चीज इतनी ऑब्वियस हो चुकी है कि अब हैरानी भी नहीं होती. मगर 'स्वातंत्र्यवीर सावरकर' इस मामले में हैरान करती है कि एक 'दमदार एक्टर' रणदीप हुड्डा से, बिना किसी वजह भी बतौर डायरेक्टर जितनी बेहतर उम्मीद थी, ये फिल्म उससे ज्यादा ढीली है.
हालांकि, इस बात में कोई दो राय नहीं है कि एक्टर रणदीप हुड्डा, एक बार फिर अपनी छाप छोड़ते हैं. खासकर फिल्म के फर्स्ट हाफ में. मगर 'सावरकर' का सेकंड हाफ शुरू होने के बाद, गैरजरूरी चीजों पर फोकस करने में इस कदर खिंचता चला जाता है कि आपको फिल्म के रनटाइम, 3 घंटे का एक-एक मिनट बहुत धीमी गति से गुजरता हुआ फील होता है.
पर्दे पर क्या लेकर आई है 'सावरकर'? 'स्वातंत्र्यवीर सावरकर' विनायक दामोदर सावरकर की जिंदगी को एकदम शुरुआत से दिखाना शुरू करती है. फर्स्ट हाफ में फिल्म उस क्रांतिकारी पर फोकस करती है, जो भारत से लंदन तक ब्रिटिश सरकार की आंखों में किरकिरी की तरह चुभता रहा.
पत्नी और उसकी गोद में अपने बच्चे को छोड़कर, विदेश जाना और उनकी फिक्र को साइड में रखकर लगातार ब्रिटिश शासन के विरुद्ध सशस्त्र क्रांति की एक मुहीम खड़ी करना, 'सावरकर' की कहानी में एक ऐसा एंगल है जिसे अगर फिल्म में ढंग से एक्स्प्लोर किया जाता तो वो बहुत इमोशनल हो सकता था. मगर फिल्म सावरकर के लीड किरदार से किसी भी तरह की मानवीयता नहीं झलकने देती.
स्क्रीनप्ले में एक लड़के के विद्यार्थी से हीरो बन जाने की जर्नी मिसिंग लगती है. 'सावरकर' लीड किरदार की मानवीयता दिखाने से इतना बचती है कि, सावरकर के बच्चे की मौत होने को भी जल्दबाजी के अंदाज में जाने दिया गया है. जबकि इस इमोशनल हाल में, देश के लिए जज्बे का कंट्रास्ट फिल्म के हीरो का कद बढ़ाता ही.
कालापानी की सजा झेल रहे सावरकर को भी जिस तरह दिखाया गया है, उससे दर्शक को फिल्म के हीरो के साथ सिम्पथी महसूस होने से ज्यादा, अंग्रेजी अफसरों, और जेल के हिंदुस्तानी वार्डन के लिए गुस्सा महसूस होता है. और हां, फिल्ममेकिंग की जुबान में हीरो के लिए सहानुभूति और विलेन के लिए गुस्सा दो अलग-अलग चीजें होती हैं. अधिकतर कहानियों में विलेन के लिए दर्शकों में गुस्सा भर के काम चल जाता है. मगर बायोपिक जॉनर की फिल्मों में हीरो से सहानुभूति महसूस करवाना बहुत जरूरी हिस्सा है.

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