शुद्ध नस्ल के लिए यूरोप से भारत की इस घाटी तक पहुंच रही महिलाएं, क्या लद्दाख में बाकी हैं आखिरी आर्यन?
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लद्दाख के हेडक्वार्टर लेह से लगभग दो सौ किलोमीटर दूर कई गांव हैं, जहां ब्रोकपा समुदाय के लोग रहते हैं. इनके बारे में माना जाता है कि ये दुनिया के आखिरी आर्य हैं. ये दावा जितना विवादित है, उससे भी ज्यादा चर्चा एक और बात पर है. कहा जा रहा है कि शुद्ध नस्ल की संतानों के लिए यहां यूरोपियन महिलाएं आ रही हैं.
लद्दाख की आर्यन घाटी में एक खास कम्युनिटी बसती है, जो दिखने और तौर-तरीकों में देश के बाकी समुदायों से काफी अलग है. हल्की स्किन और हरी-नीली आंखों वाले ब्रोकपा आबादी के बारे में दुनिया का मानना है कि वे लास्ट आर्यन हैं. लगभग रोज फूलों का मुकुट और खास पोशाक पहनने वाले इन कथित शुद्ध आर्यन्स को लेकर कई दावे भी होते रहे, जैसे यूरोपियन महिलाएं शुद्ध संतानों को जन्म देने के लिए इस घाटी में आती हैं, और इनके साथ रहती हैं. लेकिन कौन थे आर्यन, और क्यों ये लगभग खत्म हो चुके?
मास्टर रेस माना गया, जिनकी कठ-काठी मजबूत
आर्यन्स कौन थे, कहां से आए थे, इसे लेकर इतिहास में कोई एक मत नहीं रहा. हालांकि दो दावे सबसे ज्यादा दिखते हैं, जिसमें उनकी शुरुआत भारत और यूरोप के इंडो-जर्मनिक इलाकों से बताई जाती है. 19वीं सदी में इस बात के उछलने की एक वजह थी, भारतीय भाषा संस्कृत और यूरोपियन भाषाओं के बीच गहरी समानता. फ्रेंच इतिहासकार आर्थर गोबिन्यू ने इस दौरान कहा कि आर्यन दुनिया की सबसे श्रेष्ठ नस्ल हैं. वे अच्छी कठ-काठी और बुद्धि वाले होते हैं इसे मास्टर रेस कहा जाने लगा.
19वीं सदी के यूरोप में बदले मायने
वैसे आर्यन शब्द संस्कृत में आर्य से बना है, जिसका मतलब है श्रेष्ठ या महान. वैसे ये कोई नस्लीय शब्द नहीं था, बल्कि मजबूत संस्कृति वाले समुदायों के लिए इस्तेमाल होता था. 19वीं और 20वीं सदी के बीच यूरोपियन जानकारों ने इसे तोड़-मरोड़कर नस्ल से जोड़ दिया. कथित मास्टर नस्ल की श्रेष्ठता का बोध बढ़ते हुए इतना फैला कि अडोल्फ हिटलर ने इसी बात को लेते हुए गैर-आर्यन्स का कत्लेआम शुरू करवा दिया था. याद दिला दें कि हिटलर खुद को आर्य नस्ल मानता था और अपने आसपास भी गैर-आर्यन्स के रहने को गलत मानने लगा. उसके आदेश पर लाखों यहूदी खत्म कर दिए गए.
क्या खत्म हो गई ये रेस
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