दोस्तों की गलतियों को भी अपने सिर लेने वाला एक बिगड़ा शहजादा! 'जूनियर प्रेस्ली' संजय दत्त की कहानी
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बंदूकों का शौकीन और मर्दानगी की पहचान लिए एक बिगड़ा शहजादा किसी का नायक है तो किसी के लिए खलनायक. संजय के लिए जिस आजादी का सपना उनके पिता ने देखा था आज वो उनके हिस्से आ चुकी है. एक बड़ा भंवर थम चुका है और इतिहास के पन्नों पर तमाम कहानियां हमेशा हमेशा के लिए दर्ज हो चुकी हैं...
हां, मैं हूं खलनायक... स्लोगन और हाथों में हथकड़ी लगाए संजय दत्त के पोस्टर गली गली लग चुके थे. यह वो दौर था जब मुंबई ब्लास्ट मामले में संजय से पूछताछ पर पूछताछ चल रही थीं. दत्त परिवार एक बड़े भंवर में फंसता चला जा रहा था. ऐसे में उन्हें सुभाष घई का यह तरीका ज़रा भी पसंद नहीं आया कि संजय की फिल्म 'खलनायक' का इस तरह से प्रचार किया जाए. इसमें साफ तौर पर अवसरवादिता नजर आ रही थी. लेकिन घई का इस मामले में इतना ही कहना था कि फिल्म के प्रमोशन की रणनीति बहुत पहले ही बनाई जा चुकी थी. इसलिए यह कहना कि संजय की मौजूदा हालत को कैश करने के लिए इस तरह का प्रमोशन हो रहा है तो यह गलत है.
साल 1993 में 'खलनायक' के रिलीज होने से पहले ही संजय 'खलनायक' बन चुके थे. संजय एक बार फिर मीडिया में छा चुके थे, लेकिन इस बार उनकी छवि एक बैड बॉय की थी. वैसे संजय हमेशा मीडिया के केंद्र में रहे. इस बैड बॉय की कहानी में अगर रिवर्स गियर डाला जाए तो संजय का नाम भी एक मैगजीन की मदद से पड़ा. ये भी पढ़ें: सुनील दत्त की एक गुहार...और 'खलनायक' संजय दत्त के लिए 'सरकार' बन गए थे बाल ठाकरे बात उन दिनों की है जब सुनील दत्त और नरगिस एक दूसरे के प्यार में थे. दिन-रात का साथ और भविष्य को बुनना... व्यक्ति जब प्यार में होता है तो वो न जाने कितने ख्वाब देखता है. तरह-तरह के नामों से अपने प्रेमी को पुकारता है. ऐसे में सुनील दत्त, नरगिस के लिए एल्विस प्रेस्ली थे. नरगिस उन्हें इसी नाम से पुकारती थीं. भविष्य के तमाम ख्वाब में एक ख्वाब 'जूनियर प्रेस्ली' का भी देखा गया था, जो 29 जुलाई 1959 की रात 2 बजकर 45 पर सच हुआ. लेकिन जब जूनियर के नाम रखने की बारी आई तो इसके लिए एक खास कंपटीशन का आयोजन किया गया.
उस दौर की चर्चित फिल्म मैगजीन 'शमा' में सुनील और नरगिस के चाहने वालों से सुझाव मांगा गया कि वो बताएं इस नए मेहमान का क्या नाम रखा जाए. जिसमें सबसे ज्यादा सुझाया गया नाम था- संजय कुमार.
जूनियर प्रेस्ली का जन्म दत्त परिवार के लिए भाग्योदय जैसा रहा. सुनील सुपरस्टार की लिस्ट में शामिल हो चुके थे. उनकी फिल्मों में अब कमाल होने लगा था. अब उनके पास बेहतरीन फिल्मों के ऑफर थे, इसी बीच उन्होंने फिल्म प्रोडक्शन कंपनी की शुरुआत की. कंपनी का नाम रखा गया- अजंता आर्ट्स. ये सुनील के सबसे बड़े सपनों में से एक था. अजंता आर्ट्स में वो उनकी क्रिएटिव चाहतों को पूरा करना चाहते थे. इसी बैनर के तले 'मुझे जीने दो' सबसे पहली फिल्म बनी.
इस सब के बीच जो सबसे दिलचस्प बात थी वो थी नरगिस और संजय के बीच का प्यार. संजय के पैदा होने के बाद नरगिस एक बेबी बुक भी लिखती थीं. जिसमें वो संजय के हवाले से हर एक घटना पन्नों पर उकेर देती थीं. वो संजय को लेकर जहां भी जातीं देखी गयी हर एक घटना को संजय की नजर से उस बेबी बुक में दर्ज कर देती थीं. जिसमें उन्होंने अजंता आर्ट्स बैनर के तले बनने वाली पहली फिल्म के मुहूर्त शॉट वाले दिन लिखा, ' आज मेरी और मेरे पापा की जिंदगी में एक महत्वपूर्ण घटना हुई. 'मुझे जीने दो' फिल्म के मुहूर्त शॉट के लिए मुझे अंधेरी के मोहन स्टूडियो ले जाया गया. वह अनुभव भी क्या ही मज़ेदार था. मैं पापा को पहचान ही नहीं पाया, उन्होंने डाकुओं जैसे कपड़े पहने हुए थे. और काफी डरावने लग रहे थे. मैं उनके पास तब ही गया जब उन्होंने मुझे बुलाया और मुहूर्त शॉट के लिए मैंने कैमरा चला दिया. मैंने दिल ही दिल में भगवान जी से प्रार्थना भी की कि वो पापा का ध्यान रखें. मैं पापा के लिए खुशकिस्मत साबित होऊं.' ये भी पढ़ें: 'आतंक' का दर्द और तेजेश्वरी से प्यार... फिल्म जैसी है सुनील दत्त की रियल स्टोरी इस तरह नरगिस ने बेबी बुक में लिखना जारी रखा. उन्होंने हर उस मौके को संजय की बेबी बुक में दर्ज किया जो उनके लिए खास रहे. नरगिस मातृत्व को जीने के लिए फिल्मों को छोड़ चुकी थीं. वो अपना पूरा समय संजय को देना चाहती थीं. ऐसे में संजय को अपने कलेजे से लगा कर रखती थीं. फ़िल्में छोड़ने का उन्हें कोई मलाल नहीं था. वहीं बेबी बुक में दर्ज हुई वो आखिरी लाइन कि शायद मैं अपने पापा के लिए खुशकिस्मत साबित होऊं, सच हो गई. साल 1963 में बनी फिल्म 'मुझे जीने दो' के लिए सुनील को बेस्ट एक्टर का अवॉर्ड मिला.
समय का पहिया आगे बढ़ा और दत्त परिवार का चार्म बढ़ता चला गया. लाड़ प्यार में पल बढ़ रहे संजय जिद्दी होते जा रहे थे. फ़िल्मी दुनिया के जाने माने लोगों का घर आना और स्कूल तक में संजय को स्पेशल ट्रीटमेंट मिलना शायद उनके नखरों में इजाफा करता जा रहा था. अब पूरा घर संजय के नखरों के इर्द गिर्द ही चलने लगा था. एक राजकुमार की तरह देखे जा रहे संजय के ऐब किसी को नजर नहीं आ रहे थे. लेकिन सुनील इस बात से अनजान नहीं थे कि संजय बिगड़ रहे हैं. नियमों तो तोड़ना और बड़ों की बातों को इग्नोर करना अब संजय की तरफ से आम होता जा रहा था. सुनील समझ चुके थे कि उनका बेटा अब बेलगाम होता जा रहा है. और उसको लेकर सभी का लाड़ इतना ज्यादा बढ़ चुका है कि उसे चाहने वाले उसे गंभीर से गंभीर आरोप से भी बचा ले जाएंगे.
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