जम्मू-कश्मीर में 1987 की चुनावी धांधली से लगे दाग 2024 में धुल गए । Opinion
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Jammu Kashmir Assembly Election results: जम्मू कश्मीर में 1987 में हुआ विधानसभा चुनाव भारतीय लोकतंत्र के नाम पर काला धब्बा है. इतिहास गवाह है किस तरह कांग्रेस और एनसी ने मिलकर चुनावों में भारी हेरफेर किया था. 2024 के स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव ने भारतीय लोकतंत्र के ऊपर लगे उस दाग को हमेशा के लिए मिटा दिया है.
1987 के जम्मू कश्मीर विधानसभा चुनावों में जो हुआ था, अब वह कोई अब ढंकी छुपी हुई बात नहीं है. तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने कश्मीर के इन चुनावों में नेशनल कॉन्फ्रेंस नेता फारुख अब्दुल्ला के साथ मिलकर जमकर हेराफेरी कराई थी. माना जाता है कि जम्मू कश्मीर के इतिहास का ये काला दिन ही आतंकवाद के उभार का कारण बन गया. अमेरिकी कांग्रेस को सौंपी गई 2022 की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि राजीव गांधी की सरकार ने 1987 में कश्मीरी मुस्लिम आबादी को चुनाव में वोट देने से वंचित कर दिया था. कश्मीर में संघर्ष के पीछे के कारकों में से एक बहुत बड़ा कारण था. चुनावों में की गई ज़बरदस्त हेराफेरी के चलते जम्मू-कश्मीर में व्यापक आक्रोश पैदा हुआ और परिणामस्वरूप 1989 तक घाटी में उग्रवाद और आतंकवाद का उदय हुआ.
दरअसल राजीव गांधी की मंशा रही होगी कि कश्मीर में कट्टरपंथियों और अलगाववादियों के हाथ में सत्ता जाने का मतलब है कि भारत की संप्रभुता भी प्रभावित होने की आशंका बढ़ जाएगी. शायद यही सोचकर उन्होंने मध्यमार्गी फारुक अब्दुल्ला के साथ समझौता करके कश्मीर चुनावों में हेरफेर करने की बात सोची होगी. हालांकि उनकी इस प्लानिंग का उल्टा प्रभाव पड़ा और घाटी तब से जली तो अब तक बुझ नहीं सकी है.
2024 में भी ऐसी ही परिस्थितियां सरकार के सामने थीं. तमाम अलगाववादी चुनावों में भाग ले रहे थे. पर सरकार ने उन्हें खुलकर चुनावों में भागीदारी करने के अड़ंगे नहीं लगाए. नहीं तो माहौल फिर से खराब होता. हो सकता है कि इससे भारतीय जनता पार्टी को सरकार बनाने में मदद मिलती पर कश्मीर में निश्चित ही असंतोष की चिंगारी फूटती. कश्मीर में नेशनल कॉन्फ्रेंस-कांग्रेस गठबंधन की जीत फेयर इलेक्शन का ही नतीजा है. दुनिया के सामने भी यह संदेश गया है कि कश्मीर की जनता का भरोसा भारत के संविंधान और लोकतंत्र में हैं. कश्मीर में जो भी अशांति है उसके पीछे पाकिस्तान का हाथ है.
1- 1987 के जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव का ये है काला इतिहास
1987 का चुनाव नेशनल कॉन्फ्रेंस और कांग्रेस ने गठबंधन में लड़ा. मुकाबले में था मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट. यह फ्रंट कश्मीर की स्थानीय मुस्लिम संगठनों और समूहों का एक गठबंधन जो अलगाववादी विचारधारा से प्रेरित था. एमयूफ को जिताने के लिए उस साल घाटी में 80 प्रतिशत के करीब वोटिंग हुई. गौरतलब है कि इस बार भी उतनी वोटिंग घाटी में नहीं हुई है. सैयद यूसुफ शाह जो एमयूएफ से उम्मीदवार थे बाद में सैयद सलाहुद्दीन नाम से हिज्ब उल मुजाहिद्दीन नाम के आतंकी संगठन के मुखिया बन गए थे. बड़े पैमाने पर जीत रहे यूसुफ शाह को हराने के लिए साजिश रची गई. शाह को न केवल चुनाव में हराया गया बल्कि उसे और उसके मैनेजर यासीन मलिक को जेल में डाल दिया गया. यासीन मलिक भी जेकेएलएफ का नेता बना. इतना ही नहीं कहा जाता है कि एनसी के प्रत्याशी गुल मोहिद्दीन शाह ने चुनाव जीतने के बाद सलाहुद्दीन की जेल के अंदर अपने हाथों से पिटाई भी की थी.
इन चुनावों में इतने बड़े पैमाने पर तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने धांधली करवाई थी कि सज्जाद लोन के पिता अब्दुल गनी लोन ने दुखी होकर कहा था कि इससे भारत सरकार के खिलाफ लोगों की भावनाएं और गहरी होंगी. घाटी के विभिन्न भागों से जिला आयुक्तों के कार्यालयों में चुनावी धांधली की खबरें आईं. इंडिया टुडे में इंद्रजीत बधवार की रिपोर्ट कहती है कि पट्टन में मतदान केंद्रों से नेशनल कॉन्फ्रेंस के लिए पहले से छपे हुए मतपत्र बरामद किए गए. रिपोर्ट के अनुसार, इसी प्रकार की पूर्व-स्टाम्प लगी हुई पुस्तकें एमयूएफ एजेंटों को ईदगाह, हंदवाड़ा और चौदुरा में मतदान अधिकारियों से मिलीं.
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