
किताबें-कॉपी-स्टेशनरी से लेकर यूनिफॉर्म से करोड़ों कमा रहे स्कूल! समझिए- क्या है पूरा गणित?
AajTak
'मजबूरी का नाम अब बदलकर 'प्राइवेट स्कूल का पेरेंट्स' हो जाए तो बड़ी बात नहीं.' एक अभिभावक का यह वाक्य आधुनिक स्कूलिंग पर कई प्रश्नचिह्न खड़े कर रहा है. आप अंदाजा भी नहीं लगा सकते हैं कि किसी बच्चे के लिए अच्छी शिक्षा का सपना देखने वाले अभिभावक कैसे स्कूल के गणित में उलझकर खुद को मजबूर मान लेते हैं.
कभी भी किसी लेख का उद्देश्य स्कूल और पेरेंट्स के संबंधों को बिगाड़ना नहीं होता. स्कूल वो जगह हैं जहां एक अभिभावक अपनी औलाद या यूं कहें कि अपनी जीवन धुरी को पूरे विश्वास के साथ भेजता है. विश्वास, एक अच्छे व्यक्ति के निर्माण का, जो स्वाभिमानी हो, स्वावलंबी हो, नेक-ईमानदार हो और शोहरत हासिल करे. वहीं स्कूल के लिए भी ये बच्चे किसी जिम्मेदारी से कम नहीं होते. फिर भी आधुनिकता की ओर बढ़ते समाज में ये रिश्ते व्यक्तिगत से ज्यादा व्यवसायिक होते नजर आ रहे हैं.
अब दिल्ली-एनसीआर की बात करें या देश के किसी भी बड़े शहर के नामी प्राइवेट की, ज्यादातर जगह एक ही चलन दिखता है. स्कूल बच्चे के दाखिले के साथ ही उनकी यूनिफार्म से लेकर किताबें-कॉपी, स्टेशनरी से लेकर अब तो लंच की भी पूरी जिम्मेदारी ले लेते हैं. यह बुरा नहीं है, लेकिन इसमें व्यवसायिकता कहां तक है ये जानने के लिए हमने कई पेरेंट्स और अभिभावक संघ से बातचीत करके पूरा गणित जानने की कोशिश की है.
अभिभावक-1: मेरी बेटी और उसका कजिन एक ही स्कूल में पढ़ते हैं. कजिन उससे एक क्लास ऊपर है, सो मैंने सोचा कि चलो अच्छा है, बेटी के लिए किताबें तो नहीं खरीदनी पड़ेंगी. लेकिन ऐसा कभी नहीं हो पाता. स्कूल में किताबों का कंटेंट तो नहीं बदलता, लेकिन कुछ चेप्टर वगैरह में हेरफेर हो जाता है. कुल मिलाकर हमें हर साल बच्ची के लिए किताबें खरीदनी ही पड़ती हैं.
अभिभावक-2: मेरे बच्चे के लिए मैं हर साल स्कूल के अलावा स्पोर्ट्स यूनिफार्म भी खरीदता हूं. भले ही स्पोर्ट्स एक्टिविटी का अगर हिसाब लगाया जाए तो बमुश्किल साल के 48 दिन ही उसे ये यूनिफार्म पहननी होती है. और हां, ये सारी यूनिफार्म स्कूल की ही बताई इकलौती दुकान से, और अलग-अलग यूनिफार्म के लिए अलग अलग तरह के जूते-मोजे वगैरह भी वहीं से ही मिलते हैं. मैं अपने बचपन में एक ही यूनिफार्म तीन चार साल पहनता था लेकिन मेरे बच्चे की यूनिफार्म में हर बार हल्का-फुल्का चेंज हो जाता है, और मुझे इसे लेना मजबूरी बन जाता है.
ऊपर जिन अभिभावकों ने अपनी बात कही है, उन्हें स्कूल के नजरिये से कोई समस्या तो नहीं कहा जाएगा. भई, स्कूल में बच्चे एक जैसी यूनिफार्म में दिखें, एक जैसी किताबें हों, एक जैसे दिखें तभी तो समानता सीखेंगे. लेकिन, अब सवाल यह उठता है कि इन सभी में स्कूल को पढ़ाई से भी ज्यादा रुचि क्यों है.
दिल्ली पेरेंट्स ऐसोसिएशन की अध्यक्ष अपराजिता गौतम ऐसे कई सवालों के जवाब देती हैं जो साबित करते हैं कि स्कूल फीस ही नहीं, बल्कि इस सब बिजनेस से करोड़ों की कमाई करते हैं. एक अभिभावक से स्कूल इतनी मदों में पैसा ले लेते हैं कि अभिभावक के लिए बच्चे को अच्छे स्कूल में पढ़ाना एक बड़ा टास्क लगने लगता है.

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