
मैसूर में कुंभ... यहां भी त्रिवेणी के संगम पर जुटते हैं लोग, दक्षिण का प्रयाग है थिरमकुदालु नरसीपुर, फरवरी में लगेगा महामेला
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मैसूर जिले का थिरमकुदालु नरसीपुर एक तरह से गंगा-यमुना और सरस्वती का ही संगम है. थिरमकुदालु नरसीपुर को दक्षिण का काशी कहा जाता है और तीन नदियों के संगम स्थल होने के कारण इसकी महानता तीर्थराज प्रयाग के समान ही है. कहते हैं कि रामायण काल में यह पूरा क्षेत्र शूर्पणखा और उसके भाइयों खर-दूषण के अधिकार में आता था. यहीं से वे राक्षसी गतिविधियों का संचालन करते थे.
महाकुंभ -2025 के आयोजन से प्रयागराज में आस्था और श्रद्धा की अद्भुद छटा देखने को मिल रही है. जब भी कुंभ की बात होती है तो हमारे जेहन में हरिद्वार-प्रयाग और नासिक-उज्जैन का ही ध्यान आता है, लेकिन असल में कुंभ महज चार स्थानों पर ही सीमित नहीं है. आज संस्कृति और धार्मिकता के मुख्य केंद्र भले ही उत्तर भारत में महसूस होते हैं, लेकिन यह पूरी वास्तविकता नहीं है.
दक्षिण दिशा में पहले हुआ था परंपराओं का विकास संपूर्ण भारत में सनातन की सुगंध बिखरी हुई है और हर जगह से मिलाकर ही एक भारतीय परंपरा का विकास हुआ है. ऐसे में दक्षिण भारत का महत्व इसलिए और बढ़ जाता है क्योंकि ऐसा माना जाता है कि सृष्टि की शुरुआत के बाद परंपराओं और सभ्यता की विकास इसी दिशा से हुआ. नदियों के संगम में कुंभ मेले की परंपरा का एक सिरा भारत की दक्षिण दिशा से भी निकलता है.
सिर्फ उत्तर भारत की धरोहर नहीं हैं कुंभ भारत में चार स्थानों पर मान्य तौर पर कुंभ लगते हैं, लेकिन कुंभ की कथा केवल इतनी भर नहीं है. मैसूर जिले के थिरमकुदालु नरसीपुर का कुंभ आध्यात्म का ऐसा ही केंद्र है. यहां कावेरी, कपिला और स्फाटिका नदी के संगम तट पर श्रद्धालु पहुंचते हैं और कुंभ स्नान करते हैं.
दक्षिण में भी गंगा-यमुना-सरस्वती का संगम ये तीनों नाम प्रतीक तौर पर गंगा-यमुना और सरस्वती ही हैं. कावेरी को दक्षिण की गंगा कहा जाता है. यह नदी महर्षि अगस्त्य के कमंडल से निकली है और उनकी पत्नी देवी लोपामुद्रा की प्रतिरूप मानी जाती है. कपिला नदी स्वर्ग लोक की एक गाय है. इसे कामधेनु गाय की पुत्री माना जाता है. कामधेनु की एक और पुत्री थी नंदिनी. कहते हैं कि इसका जल दूध की तरह सफेद है. कपिला गाय को सूर्यदेव ने ऋषियों को यज्ञ के प्रसाद के तौर पर दिया था. इसलिए इसे उनकी भी पुत्री माना जाता है. यह यमुना नदी का प्रतीक है.
वहीं स्फाटिका सरस्वती नदी का प्रतीक है. वास्तव में यह एक झील नुमा ही है, इसकी मान्यता भी गुप्तगामिनी नदी के समान ही है. देवी सरस्वती के हाथ में जिस स्फटिक पत्थरों की माला है, उसके पत्थर इसी झील में मिलते हैं.
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