महानिर्वाणी अखाड़े के महंत रवींद्र पुरी ने बताया, कुंभ के बाद कहां चले जाते हैं नागा साधु?
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Where do Naga Sadhus go after Kumbh: महाकुंभ में आकर्षण का केंद्र होते हैं साधु संन्यासियों के अखाड़े. इनमें भी नागा साधुओं की दुनिया पूरी दुनिया को अपनी ओर खींचती है. आइए जानते हैं इस दुनिया के झरोखे में.
जगद्गुरु शंकराचार्य ने सनातन की सुरक्षा के लिए ईसवी सदी से करीब सात सौ साल पहले बौद्ध धर्म में आए बदलाव और अन्य मान्यताओं से सनातन को सुरक्षित करने के लिए युवा संन्यासियों की सेना बनाई. नाम दिया गया- 'अखंड.'
बस आगे चलकर वही अखाड़ा बना. उत्तम प्रबंधन के लिए अखंड में भी विभाजन हुआ और सेना बढ़ती गई. आज शैव मत के संन्यासियों के सात मुख्य अखाड़े हैं. जूना, आवाहन, अग्नि, महानिर्वाणी, अटल, निरंजनी और आनंद.
महानिर्वाणी अखाड़ा के श्री महंत रवींद्र पुरी ने बताया कि अखाड़ों के मूल देव तो शिव हैं, लेकिन आराध्य देवता अलग-अलग. धर्म की रक्षा के लिए बनाए गए अखाड़े अब समाज निर्माण में अपना योगदान करते हैं. महाकुंभ से पहले सभी अखाड़ों में धर्म ध्वजा स्थापित की जाती है. ध्वजा स्थापना का अर्थ है कि अब अखाड़े के सभी संन्यासियों और श्रद्धालुओं के रहने और भोजन की व्यवस्था के लिए अखाड़ा तैयार है. अखाड़ों की धर्म ध्वजा का रंग तो भगवा होता है लेकिन उन्हें ध्वज दंड पर फहराने के तरीके अलग अलग हैं. सदियों बाद भी ये नागा संन्यासी कमांडो की भूमिका में तो आज भी रहते हैं. शास्त्रों के साथ शस्त्रों की शिक्षा भी लेते हैं. लेकिन अब इनकी भूमिका समाज को शिक्षित और अपनी सनातनी परंपरा के प्रति जागरूक करने की भी है.
महंत रवींद्र पुरी बताते हैं कि सनातन की इस कमांडो फोर्स को अपने इस लोक और परलोक की भी चिंता नहीं. क्योंकि इन्होंने स्वयं को स्वयं से स्वयं ही मुक्त कर लिया है. सभी चारों कुंभ में पहले अमृत स्नान के बाद और दूसरे से पहले नए नागा संन्यासी दीक्षित किए जाते हैं. उसकी भी पारंपरिक विधि है. नागा संन्यासी बनना आसान नहीं होता. अब बड़ा प्रश्न लोगों के जेहन में उठता है कि कुंभ में हजारों की संख्या में दिखते ये नागा संन्यासी कुंभ के बाद कहां गायब हो जाते हैं? इस सवाल का भी उत्तर जान लीजिए.
निरंजनी अखाड़ा के महंत रवींद्र पुरी ने बताया कि अब इतना जान लीजिए कि साधना और सुअवसरों में नागा संन्यासी नग्न यानी दिगंबर रहते हैं. लेकिन समाज में आते जाते समय लोक मर्यादा से उपवस्त्र यानी कौपीन लंगोट या गमछा धारण करते हैं. ये संन्यासी गांव, खेड़ों, कस्बों शहरों में स्थित मंदिरों मठों आश्रमों का प्रबंधन करते हुए समाज में भी रहते हैं, तो कई गिरी गुफाओं में अपनी साधना से देश-दुनिया कल्याण के लिए ध्यान तपस्या में मग्न रहते हैं.
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