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अघोरी साधुओं की रहस्यमयी दुनिया... कैसा होता है जीवन, नागा बाबाओं से कितने अलग
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अघोरी साधु भगवान शिव को मोक्ष का मार्ग मानकर उनकी घोर साधना करते हैं और शिव को सर्वज्ञ, सर्वव्यापी और सर्वशक्तिमान मानते हैं. अघोरी जन्म-मृत्यु के भय से परे माने जाते हैं और इसी वजह से ये श्मशान में भी रहते हैं. अघोरी और नागा साधुओं के बीच भी अंतर होते हैं.
संगम नगरी प्रयागराज में महाकुंभ का शुभारंभ होने जा रहा है. आस्था के इस समागम में देश-दुनिया से साधु-संत हिस्सा लेने आ रहे हैं. तमाम अखाड़ों के संतों के अलावा महामंडलेश्वर और अघोरी साधु भी कुंभ का हिस्सा होंगे. हम आपको अघोरी साधुओं की रहस्यमयी दुनिया के बारे में बताएंगे, क्योंकि इन्हें लेकर कई तरह के मिथक और भ्रांतियां लोगों के बीच हैं. साथ ही आम धारणा के मुताबिक लोग इन अघोरी साधुओं को तांत्रिक समझ बैठते हैं और कई बार तो इनके पास आने से डरते हैं.
कौन होते हैं अघोरी
सबसे पहले आपको बताते हैं कि आखिर अघोरी शब्द कहां से आया. अघोरी शब्द दरअसल संस्कृत के अघोर से निकला है जिसके मतलब है कि जो निर्भय हो. अघोरी शिव के पूजक माने जाते हैं और मुख्य रूप से कपालिका परंपरा को मानने वाले होते हैं, इसी वजह से हमेशा कपाल यानी नरमुंड इनके साथ रहता है. अघोरी साधु शिव के अलावा शक्ति के रूप काली के उपासक माने जाते हैं. इसी वजह से वह अपने शरीर पर राख लपेटे रहते हैं, रुद्राक्ष की माला और नर मुंड भी इनकी वेशभूषा का हिस्सा होते हैं.
आमतौर पर अघोरी साधु एकांत में रहते हैं और सार्वजनिक रूप से कम नजर आते हैं. कुंभ जैसे धार्मिक आयोजनों में ही इन्हें सावर्जनिक तौर पर देखा जाता है. ऐसे साधु श्मशान या किसी दुर्गम इलाके में रहते हैं, जहां सभी का जाना मुमिकन नहीं होता, क्योंकि ऐसी जगह इनकी साधना के लिए सबसे अनुकूल मानी जाती है. अघोरी संप्रदाय 18वीं सदी में हुए बाबा कीनाराम का अनुसरण करते हैं और उनके द्वारा किए गए कामों को अपनी परंपरा का हिस्सा मानते हैं. सबसे पहले अघोरी की उत्पत्ति काशी से हुई थी और तब से ये देशभर के मंदिरों में फैल गए.
श्मशान में रहकर करते हैं साधना
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प्रयागराज में माघ पूर्णिमा के अवसर पर करीब 2 करोड़ श्रद्धालुओं ने संगम में आस्था की डुबकी लगाई. इस दौरान शासन-प्रशासन हर मोर्चे पर चौकस रहा. योगी आदित्यनाथ ने सुबह 4 बजे से ही व्यवस्थाओं पर नजर रखी थी. श्रद्धालुओं की भारी भीड़ के कारण ट्रेनों और बसों में यात्रियों को परेशानी का सामना करना पड़ा. देखें.
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हिंदू पंचांग के अनुसार माघ मास में शुक्ल पक्ष का 15वीं तिथि ही माघ पूर्णिमा कहलाती है. इस दिन का धार्मिक, आध्यात्मिक और सांस्कृतिक दृष्टि से खास महत्व है और भारत के अलग-अलग हिस्सों में इसे श्रद्धा और भक्ति के साथ मनाया जाता है. लोग घरों में भी कथा-हवन-पूजन का आयोजन करते हैं और अगर व्यवस्था हो सकती है तो गंगा तट पर कथा-पूजन का अलग ही महत्व है.