'मैंने दिल्ली को बनते-बदलते देखा है, तब औरतें...', चलता-फिरता इतिहास हैं 80 साल के 'ऑटो वाले अंकल'
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साल 2025 में अपने 80वें बरस में प्रवेश कर चुके ऑटो ड्राइवर राम प्रकाश अभी भी ऑटो चलाकर अपना भरण पोषण कर रहे हैं. उनसे बात करो तो एक ऐसी दिल्ली की तस्वीर बनती है जो ब्लैक एंड व्हाइट फिल्मों की याद दिलाती है. गीता कॉलोनी की रिफ्यूजी कॉलोनी में रहने वाले राम प्रकाश ने अपनी साठ साल की ड्राइविंग का अनुभव aajtak.in से साझा किया.
कई बार कुछ लोग चलता-फिरता इतिहास होते हैं. 80 की उम्र में दिल्ली में ऑटो चला रहे राम प्रकाश से मिलकर कुछ ऐसा ही अहसास होगा. आजादी से ठीक दो साल पहले साल 1945 में जन्मे राम प्रकाश ने आजादी के बाद दिल्ली की बनती-बिगड़ती तमाम सरकारें तो देखी ही हैं. इसके अलावा उन्होंने रात की अंधेरी सड़कों पर होने वाले हादसे, दिन की रोशनी में चमकते उम्मीद के दीये भी देखे हैं. वो समय जब दिल्ली के घरों में लिपाई होती थी, पुलिस बूथ, ट्रैफिक और मेट्रो जैसी चीजें नहीं हुआ करती थीं. तब की दिल्ली में रात और दिन इतने शोर भरे नहीं थे. टेक्नोलॉजी इतनी एडवांस नहीं थी और लोग भी इतने मॉडर्न नहीं थे.आइए उनसे जानते हैं उस दौर की कहानी, उन्हीं की जुबानी.
तब औरतें नहीं आती थीं नजर 60 साल पहले दिल्ली का माहौल ही अलग था. यहां रात के आठ बजे औरतें सड़कों पर नजर नहीं आती थीं. न इतनी कंपनियां थीं जहां लड़कियां नौकरी करें. वीआईपी एरिया जैसे साउथ दिल्ली या रेलवे स्टेशन पर अगर एकाध अकेली महिला दिखी भी तो उसको सेफ पहुंचाना टैक्सी ड्राइवर की जिम्मेदारी होती थी. तब ड्राइवर का पेशा बहुत ईमानदारी वाला माना जाता था. मैं तब के ड्राइवरों को नशा करते नहीं देखता था.
कहां से आकर दिल्ली में बसे राम प्रकाश कहते हैं कि जब हिन्दुस्तान-पाकिस्तान बना, मैं दो साल का था. मेरा परिवार पाकिस्तान में लाहौर के पास रहता था. मेरे पापा बताया करते थे कि कैसे वो अपनी खाने-पीने की दुकान और घर में ताला लगाकर हिन्दुस्तान आए और फिर कभी दोबारा वहां नहीं जा सके. यहां आकर पहले पहाड़गंज में झुग्गी झोपडी में रहे. पेट पालने के लिए कभी दूसरों की खेती की तो कभी मजदूरी की, बहुत मुफलिसी में मुझे और मेरे दो भाईयों को पाला.उस समय के प्रधानमंत्री ने फिर 900 रुपये में गीता कॉलोनी में मकान दिया. तब ये रकम भी बहुत भारी थी हमारे परिवार के लिए. मेरे पिता ने तीन किस्तों में ये पैसा दिया था. गीता कॉलोनी में आकर भैंसें पाली और डेयरी की. हम गीता कॉलोनी ही में 65 साल से जिस घर में रह रहे हैं. वहां कभी गोबर से पोता जाता था.
बचपन का किस्सा बताने के बाद राम प्रकाश आगे कहते हैं कि मैंने तो जब होश संभाला तो हिन्दुस्तान ही देखा. मेरे पिता ने बहुत संघर्ष देखे थे. उन्होंने मुश्किलों से 9000 रुपये का सवारी रिक्शा लिया था, पिता जी ने किसी से फाइनेंस कराके रिक्शा लिया था. ये पिता जी ने तो नहीं चलाया, पर मेरे दो बड़े भाई चलाते थे. मैं आज भी सोचता हूं तो लगता है कि मैंने इतना संघर्ष नहीं देखा. मेरे सामने तो बस एक बार 1984 के दंगे हुए थे. जब लोग हमारे सामने दुकानें लूट रहे थे. एक विशेष संप्रदाय वालों को लोग बहुत मार रहे थे. उस दौर में मैंने भी करीब एक महीने काम नहीं किया.
बड़े-बड़े अमीरों के पास ही कार होती थी खैर, जब मैंने दसवीं पास कर ली थी तो मैं भी गाड़ी चलाने लगा था. उस दौर की दिल्ली के बारे में वो हंसकर कहते हैं कि तब तो शरम आती थी दिल्ली को कैपिटल कहने में. तब ये एक छोटा-सा शहर लगता था. हमारे जमाने में सवारियों के लिए लंबरेटा टाइप हैवी गाड़ी ही होती थी, जिसमें माल भी लोड करते थे और सवारी भी बैठती थी. वो मैंने नौ साल चलाई, फिर वेस्पा गाड़ी आ गई, आगे इंजन वाली, फिर पीछे इंजन की गाड़ियां आईं, फिर सीएनजी और अब इलेक्ट्रिक गाडियां तक आ गईं. उस जमाने में तो हम पेट्रोल की गाड़ी चलाते थे, तब ट्रैफिक नहीं होता था. चार-पांच रुपये के पेट्रोल में पूरा दिन चलती थी. तब सड़कों पर कारें भी इतनी नहीं थीं. बस, बड़े-बड़े अमीरों के पास ही कार होती थी.
ट्रैफिक के बारे में वो बताते हैं कि तब तो हम लोग लाल बत्ती पर खड़े होते थे, कोई ट्रैफिक या जाम जैसी चीजें होती ही नहीं थी. यहां के कुतुब मीनार, इंडिया गेट या लाल किला जैसी जगहों पर भी इक्का दुक्का लोग दिखते थे.
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