
प्रवासी भारतीय दिवस: पहला गिरमिटिया से 3.50 करोड़ प्रवासियों के परिवार तक, भारत के ग्लोबल ड्रीम के चमकने की कहानी...
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Pravasi Bharatiya Divas: हिन्दुस्तान से हजारों मील दूर बिहार, बंगाल और यूपी के मजदूरों ने विदेशी जमीन पर 'अपना भारत' बसाया. उनके मन में बिछोह था, पलायन की पीडा थी. इन्होंने तुलसी की चौपाइयां, लोक गीत, तीज त्योहार इन मजदूरों के लिए खुद को दिलासा देने का आधार बन गया. मातृभूमि से हजारों मील दूर इन भारतीयों ने अपने लिए एक अनूठे सामाजिक-सांस्कृतिक इको सिस्टम का निर्माण किया. प्रवासी भारतीय दिवस पर पेश है वो कहानी जब भारतीय पूरी दुनिया में फैले और छा गये.
सुंदर सुभूमि भैया भारत के देसवा से मोरे प्राण बसे हिम-खोह रे बटोहिया एक द्वार घेरे रामा हिम-कोतवलवा से तीन द्वार सिंधु घहरावे रे बटोहिया जाऊं-जाऊं भैया रे बटोही हिंद देखी आऊं, जहवां कुहुकी कोइली गावे रे बटोहिया...
अगर आप भोजपुरी नहीं भी समझते हैं तो भी इन पंक्तियों के भाव आपकी आंखें सहज ही नम कर देंगी. भोजपुरी में राष्ट्रगीत का दर्जा पा चुकी बाबू रघुवीर नारायण की ये रचना मारीशस, फिजी, त्रिनिदाद, फिजी, गुयाना, सूरीनाम में फैले प्रवासी भारतियों की पुकार थी. 1912 में लिखा गया ये गीत 'गिरमिटिया' की पहचान लिए मजदूरों को उनकी जन्मभूमि भारत से जोड़े रखता था.
अविभाजित बिहार, बंगाल और उत्तर प्रदेश के ये वो मजदूर थे जो अंग्रेजों द्वारा बुने गए एक सुनहरे भविष्य के जाल में फंस गये. ये समय आज से लगभग 200 साल पहले का था. अंग्रेजों ने गरीबी और गुलामी में फंसे पूर्वांचल के युवाओं को परदेस जाकर जिंदगी संवारने का लुभावना ऑफर दिया.
महिलाएं और बुजुर्ग तो गोरों की चालबाजी समझते थे, लेकिन युवाओं का गर्म खून लालच और गुलाबी खयालों के जाल में फंस गया. उन्होंने फैसला सुना दिया वे अब गोरों के मुलाजिम बनेंगे और कलकत्ता में कमाएंगे.
कुछ तो बांकपन और कुछ लड़कपन... ये लड़के नहीं जानते थे कलकत्ता में हुगली के किनारे कुछ नावें उनका इंतजार कर रही हैं. जहां से एक यात्रा शुरू होनी है जिसका लक्ष्य है भारत से हजारों किलोमीटर दूर, समंदर के उस पार बसी अंग्रेजों की वो कॉलोनियां जो बेनाम, बंजर और विरान थीं.
गठरी में बांध ले गए भारत की आत्मा

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