नेहरू-कैनेडी, इंदिरा-निक्सन से मोदी-ट्रंप तक... भारत-US रिश्ते डिप्लोमेसी नहीं, पर्सनल केमिस्ट्री से तय होते हैं!
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दशकों की गुलामी से आजाद हुआ भारत अपने पैरों पर खड़ा होने की कोशिश कर रहा था. ऐसी स्थिति में भारत की उम्मीद भरी नजरें अमेरिका की तरफ थी. 1949 में प्रधानमंत्री नेहरू पहली बार अमेरिका के दौरे पर गए. भारत को आस थी कि दुनिया का सबसे ताकतवर मुल्क उनकी मदद करेगा लेकिन अमेरिका की ट्रूमैन सरकार को इसमें कोई खास दिलचस्पी नहीं थी.
One Should never go to America for the First time... 11 अक्टूबर 1949 को पंडित जवाहर लाल नेहरू ने जब बहन विजयलक्ष्मी पंडित को चिट्ठी लिखी थी. उस समय वह अपने पहले अमेरिकी दौरे की तैयारी कर रहे थे. ये शब्द उसी चिट्ठी के हैं. किसी भारतीय प्रधानमंत्री के पहले अमेरिकी दौरे के लगभग 75 साल बाद आज पीएम नरेंद्र मोदी अमेरिका पहुंचे हैं, जहां उनकी मुलाकात अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप से होगी. दुनिया के दो ताकतवर मुल्कों के राष्ट्रप्रमुख जब मिलते हैं तो उनके बीच की केमिस्ट्री जियोपॉलिटिक्स पर असर डालती है. भारत और अमेरिका के जो संबंध आज दुनिया के सामने हैं, वह शुरुआत से ऐसे नहीं थे. दोनों देशों के संबंधों में उतार-चढ़ाव का एक भरा-पूरा इतिहास रहा है.
भारत और अमेरिका के इन संबंधों की नींव रखी गई थी 1949 में. देश को आजाद हुए दो साल हुए थे. भारत जब आजाद हुआ तो अमेरिका के राष्ट्रपति हैरी एस. ट्रूमैन थे और भारत के पहले प्रधानमंत्री थे पंडित जवाहर लाल नेहरू. सेकंड वर्ल्ड वॉर के बाद अमेरिका को मुश्किल भरे हालात से बाहर निकालने में ट्रूमैन की अहम भूमिका थी. लेकिन उनके कई फैसले दुनिया के लिए नासूर बन गए थे. ये वही ट्रूमैन थे जिनके कार्यकाल में अमेरिका ने जापान के हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु बम गिराए थे. ये वो दौर था, जब अमेरिका की प्राथमिकता सोवियत संघ के बढ़ते प्रभाव को रोकने की थी. लेकिन भारत को लेकर उनकी सोच संतुलित नहीं थी.
उतार-चढ़ाव भरी थी अमेरिका और भारत के रिश्तों की शुरुआत
दशकों की गुलामी से आजाद हुआ भारत अपने पैरों पर खड़ा होने की कोशिश कर रहा था. ऐसी स्थिति में भारत की उम्मीद भरी नजरें अमेरिका की तरफ थी. 1949 में प्रधानमंत्री नेहरू पहली बार अमेरिका के दौरे पर गए. भारत को आस थी कि दुनिया का सबसे ताकतवर मुल्क उनकी मदद करेगा लेकिन ट्रूमैन सरकार को इसमें कोई खास दिलचस्पी नहीं थी.
मीनाक्षी अहमद ने अपनी किताब A Matter of Trust: India-US Relations from Truman to Trump में लिखा है कि दुनिया के कई बड़े नेता नेहरू को सम्मान की नजरों से देखते थे. लेकिन नेहरू नहीं चाहते थे कि उन्हें अमेरिका के सामने मदद के लिए गिड़गिड़ाना पड़े. उनकी ख्वाहिश थी कि अमेरिका खुद से आगे बढ़कर भारत की मदद करे. राष्ट्रपति ट्रूमैन नेहरू की गुटनिरपेक्ष नीति की वजह से उन्हें कम्युनिस्ट मानते थे. यही वजह थी कि वह नेहरू पर भरोसा नहीं कर पाते थे. ट्रूमैन की सरकार में विदेश मंत्री डीन एचेसन का नेहरू के प्रति व्यवहार भी काफी उपेक्षा भरा था.
किताब में एक जगह बताया गया है कि अमेरिकी दौरे पर नेहरू के साथ उनकी बेटी इंदिरा गांधी भी गई थीं. नेहरू के सम्मान में वॉशिंगटन डीसी में विदेश मंत्री डीन एचेसन ने डिनर की मेजबानी की. इस डिनर पार्टी में वित्त मंत्री जॉन स्नाइडर नशे की हालत में पहुंचे. स्नाइडर ने डिनर के बीच में ही विदेशी मेहमानों को डांटना शुरू कर दिया कि अमेरिका से पैसे उगाहने के लिए ये लोग यहां आ धमकते हैं. देखा जाए तो ये गुलामी की बेड़ियों से कुछ साल पहले ही आजाद हुए मुल्क के राष्ट्रप्रमुख के साथ किए गया भद्र व्यवहार नहीं था.
अवैध प्रवासियों को लेकर अमेरिका की डोनाल्ड ट्रंप सरकार बेहद सख्त रुख अपना रही है. हाल में भारत समेत कई देशों के घुसपैठियों को उसने बाहर का रास्ता दिखाया. ब्रिटेन भी इसी राह पर है. इस बीच हमारे यहां भी इमिग्रेशन एंड फॉरेनर्स बिल आ सकता है. इसमें अवैध रूप से सीमा पार करने वालों के लिए ज्यादा कड़ी सजाएं होंगी.
दशकों की गुलामी से आजाद हुआ भारत अपने पैरों पर खड़ा होने की कोशिश कर रहा था. ऐसी स्थिति में भारत की उम्मीद भरी नजरें अमेरिका की तरफ थी. 1949 में प्रधानमंत्री नेहरू पहली बार अमेरिका के दौरे पर गए. भारत को आस थी कि दुनिया का सबसे ताकतवर मुल्क उनकी मदद करेगा लेकिन अमेरिका की ट्रूमैन सरकार को इसमें कोई खास दिलचस्पी नहीं थी.
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