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जब चांदनी चौक में बिना सिक्योरिटी प्रचार करने पहुंचे थे राजीव गांधी... कुछ ऐसी हुआ करती थी पुरानी दिल्ली
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देश के कोने-कोने से हर साल हजारों लोग सुनहरे भविष्य का सपना लेकर दिल्ली आते हैं. दिल्ली का इतिहास जितना पुराना है, उतना ही हाईटेक यहां का अंदाज़ भी है. भागदौड़ भरी ज़िंदगी में वो दिल्ली भी पीछे छूट गई है... जो सुकून देती थी. दास्तान-ए-दिल्ली के इस पार्ट में हमने बात की राजधानी के कुछ ऐसे ही बुज़ुर्गों से जिन्होंने दिल्ली को बनते-बिगड़ते देखा है.
'जो दौर हमने जिया है... वो हमारे बच्चे नहीं जी सकते.... अब तो दिलों में नफ़रतें बैठ गई हैं...', 74 साल के शम्सुद्दीन जब ऐनक उतारकर ये कहते हैं तो उनकी आंखों में सिवाए पीड़ा के कुछ नजर नहीं आता. ये पूछने पर कि कौन फैला रहा है नफ़रतें? वह साफगोई से एक झटके में कह जाते हैं कि आज तो इंसानियत ख़त्म हो गई है, शराफ़त ख़त्म हो गई है, मुहब्बत खत्म हो गई है... एक-दूसरे की तरक़्क़ी से इंसान जलने लगा है तो ऐसे में दिलों में नफ़रतें बैठना लाज़िमी है.
1947 में मुल्क दो टुकड़ों में बंटा तो शम्सुद्दीन का परिवार बंटवारे का दंश झेलता हुआ लाहौर से लखनऊ आ गया. शम्सुद्दीन कहते हैं कि लखनऊ कुछ जमा नहीं तो उनके अब्बा अगले ही साल दिल्ली आ गए. चांदनी चौक में उनके कुछ रिश्तेदार पहले से थे. तो परिवार ने भी यहीं आशियाना बना लिया. 1951 में शम्सुद्दीन का जन्म हुआ. बचपन से लेकर जवानी और अब बुढ़ापा चांदनी चौक की इन्हीं गलियों में बीत रहा है. उनकी चांदनी चौक में कपड़े की एक छोटी सी दुकान है, जो दशकों से दुल्हनों के लहंगे से लेकर बाकी कपड़े बेचती आ रही है.
शम्सुद्दीन ने जन्म से ही दिल्ली और यहां की सियासत को करीब से देखा है. इतने सालों में दिल्ली कितनी बदली? बड़े सुकून से इसका जवाब देते हुए वह कहते हैं कि मेरा तो जन्म ही ऐसे माहौल में बना, जब दिल्ली में बड़ी हलचल थी. देश को आजाद हुए कुछ ही साल बीते थे. मैंने तो 60 और 70 के दशक की दिल्ली भी देखी है और आज की दिल्ली भी देख रहा हूं. इंदिरा और राजीव को भी देखा है, अटल बिहारी वाजपेयी और नरेंद्र मोदी को भी...
शम्सुद्दीन कहते हैं कि मेरे अब्बा पंडित नेहरू और इंदिरा गांधी के ज़बरदस्त फैन हुआ करते थे. मुझे भी नेहरू पसंद थे. मुझे याद है कि पंडित नेहरू जामा मस्जिद के पास बनी मौलाना आज़ाद की क़ब्र पर हर साल जाया करते थे, उस समय उनके साथ सिक्योरिटी नहीं होती थी. इसे लेकर उस समय घर-कूचे में बहुत बातें हुआ करती थीं कि नेहरू जी बिना सिक्योरिटी के वहां जाते हैं. नेहरू असल में मिलनसार थे. शांत स्वभाव के थे. वह आसानी से लोगों से कनेक्ट कर जाते थे. आज के समय में इतने बड़े कद के किसी नेता को बिना सिक्योरिटी के देख सकते हैं क्या? एक अदना सा पार्षद इतने रौब में चलता है, मानो किसी रियासत का महाराज हो.
शम्सुद्दीन को दिल्ली से जुड़े कई किस्से याद हैं. वह बताते हैं कि एक बार राजीव गांधी प्रचार करने चांदनी चौक आए थे. यहां रैली के दौरान उन्होंने अपनी सिक्योरिटी हटा दी थी तो उनसे बहुत कहा गया कि मुस्लिम इलाका है, कुछ अनहोनी हो सकती है लेकिन वे नहीं माने. उन्होंने बिना सिक्योरिटी के यहां रैली की. चांदनी चौक तो ऐसी जगह है, यहां के लोगों ने सभी का दिल खोलकर स्वागत किया है. ऊपर से तब दिल्ली ऐसी नहीं थी, वो दौर अलग था, उस वक्त अलग मिजाज के लोग थे.
45 सालों से दिल्ली में रह रहे राम गोपाल भी कुछ इसी तरह पुराने दिनों को याद करते हुए कहते हैं कि मुझे कई बार रह-रहकर पुराने दिन याद आते हैं. तब आज की तरह ना भीड़भाड़ थी, ना शोर-शराबा. जिदंगी में एक ठहराव था. मैं 1980 के दशक की शुरुआत में बागपत से दिल्ली आया था. शुरुआत में बाहरी दिल्ली के एक छोटे से गांव में कुछ साल रहा. उस गांव का नाम था- हिरण कूदना. वो यूपी और हरियाणा के किसी गांव की तरह था. आजकल के गांव कहां गांव रह गए हैं? कहने को गांव हैं, लेकिन उस दौर में लोगों के अंदर आत्मीयता थी. अपनापन था. पड़ोस में सभी मिल-जुलकर खाना खाते थे. कभी एक दिन ऐसा नहीं गया जब एक ही सब्जी के साथ खाना खाया हो. अपनी आलू-मटर की सब्जी के साथ-साथ पड़ोसियों की लौकी, बैंगन और कढ़ी खाई जाती थी. अब तो पता ही नहीं चलता कि बगल के मकान में कौन रहता है?
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