खूनी, बर्फानी और खिचड़ी... कितने तरह के नागा संन्यासी, कुंभ में दीक्षा का व्यवहार पर असर
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प्रयागराज में आयोजित कुंभ में अगर कोई नागा दीक्षा लेता है तो उसे राजराजेश्वर नागा कहा जाता है. वहीं, अगर हरिद्वार में कोई नागा संन्यास की दीक्षा लेता है तो उसे बर्फानी नागा कहा जाता है. उज्जैन में संन्यास की दीक्षा लेने वाले साधु को 'क्रोधी नागा या खूनी नागा' कहा जाता है.
महाकुंभ में सबसे अधिक आकर्षण का केंद्र नागा संन्यासी होते हैं. इनके ऐसे-ऐसे रहस्य होते हैं, जिन्हें जानना न सिर्फ आश्चर्य में डाल देता है, बल्कि उनके रहन-सहन और कठिन अनुशासन कई बार दांतों तले अंगुलि दबाने को मजबूर कर देते हैं. महाकुंभ के आयोजनों के दौरान ही सबसे बड़ा काम जो होता है, वह है नागा संन्यासियों की दीक्षा. कुंभ का आयोजन ही इसलिए होता है कि इसके जरिए किसी नए साधु को अखाड़े में प्रवेश कराया जाता है, या फिर कई साल से संन्यास लिए हुए साधु को उसकी परीक्षा के आधार पर संन्यास दिलवाया जाता है.
कुंभ स्थल का नागा संन्यासी के व्यवहार पर पड़ता है असर नागा संन्यासी बनना एक लंबी और कठिन प्रक्रिया है. यह केवल व्यक्ति की इच्छा पर निर्भर नहीं होता, बल्कि इसके लिए निर्धारित परीक्षण, प्रशिक्षण और एक नियमबद्ध प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है. नागा संन्यासियों की दीक्षा केवल प्रयागराज, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक में आयोजित होने वाले कुंभ के अवसर पर होती है. नागा साधुओं की दुनिया में इन्हें उनके विशेष लक्षणों और परंपराओं के आधार पर पहचाना जाता है. उदाहरण के लिए, प्रयागराज के नागा संन्यासियों को 'हजाराप्रवर', हरिद्वार के साधुओं को 'त्यागी', उज्जैन के संन्यासियों को 'महाकाल के साधु', और नासिक के नागाओं को 'न्याय के प्रतीक' कहा जाता है. माना जाता है कि कुंभ स्थलों का प्रभाव वहां की परंपराओं और नागा संन्यासियों की साधना पर पड़ता है.
कितने तरह के नागा संन्यासी 'भारत में कुंभ' किताब में लेखक धनंजय चोपड़ा लिखते हैं कि, 'जिस कुंभ में संन्यासी को नागा दीक्षा दी जाती है, उस कुंभ का उसके ऊपर असर भी पड़ता है और इसी आधार पर उन्हें पहचाना भी जाता है. जैसे प्रयागराज में आयोजित कुंभ में अगर कोई नागा दीक्षा लेता है तो उसे राजराजेश्वर नागा कहा जाता है. वहीं, अगर हरिद्वार में कोई नागा संन्यास की दीक्षा लेता है तो उसे बर्फानी नागा कहा जाता है. उज्जैन में संन्यास की दीक्षा लेने वाले साधु को 'क्रोधी नागा या खूनी नागा' कहा जाता है. वहीं नासिक में संन्यास की दीक्षा लेने वाले नागा को 'खिचड़ी' नागा कहा जाता है.'
क्या पड़ता है स्वभाव पर असर प्रयागराज के कुंभ में दीक्षित हुए नागा संन्यासी संन्यास लेने के बाद तपस्वी हो जाते हैं और तप के शीर्ष पर पहुंचते हैं. वहीं जो नागा उज्जैन में संन्यास की दीक्षा लेते हैं उनका स्वभाव उग्र होता है और वह खूनी इसलिए कहलाते हैं क्योंकि वह शस्त्र को अपने शृंगार की तरह धारण करते हैं. हरिद्वार कुंभ में दीक्षित नागा स्वभाव से शीतल और शांत होते हैं वहीं नासिक के नागा का स्वभाव एक सा नहीं होता है.
संन्यासी बनने के इच्छुक व्यक्ति को पहले दो-तीन वर्षों तक अखाड़े के इतिहास, परंपरा और साधु जीवन को गहराई से समझना होता है. इस दौरान वह अपने गुरु की सेवा करता है और अखाड़े के अन्य कार्यों में सक्रिय रूप से भाग लेता है. इस समय यह परखा जाता है कि वह ब्रह्मचर्य का पालन कर रहा है या नहीं और उसके आचरण में धर्म, राष्ट्र, समाज, अखाड़ा और गुरु के प्रति समर्पण का भाव कितना गहरा है.
संन्यासी के लिए जरूरी नियम
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