
खुद की बेटी को 20 साल कैद में रखा, भूख-प्यास से गई जान... दिल्ली के इस किले में बाकी हैं औरंगजेब की क्रूरता के निशान
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ऐसा नहीं है कि औरंगजेब शुरू से ही जेब-उन-निसा के खिलाफ था, बल्कि वह तो उसे बहुत चाहता भी था. वह उसके तेज दिमाग, हाजिरजवाबी और इस्लाम की राह में उसकी रुचि के कारण वह उसका बहुत मान करता था. बड़ी शहज़ादी होने के नाते जागीर के तौर पर उसे तीस हज़ारी बाग दिया गया था जहां उसका एक आलीशान महल था.
दिल्ली के दिल में जहां लालकिला नाम का एक मोती जड़ा हुआ है, इसके ही ठीक पीछे मौजूद है सलीमगढ़ किला. स्याह, तन्हा और बीते वक्त की निशानियों से भरपूर. दिल्ली में इसके लिए कहते हैं कि यहां भूतों का बसेरा है. भूत क्या, एक भटकी हुई रूह है. रूह भी कोई ऐसी वैसी नहीं, किसी जमाने में जिस मुगलिया सल्तनत का परचम दुनिया भर में लहरा रहा था उसी मुगल खानदान की शहजादी की रूह, नाम था जेब-उन-निसा (जेबुन्निसा). बादशाह औरंगजेब की बड़ी बेटी. क्या भुतहा है सलीमगढ़ किला? दिल्ली के इतिहास पर खूब काम करने वाले वरिष्ठ पत्रकार विवेक शुक्ला इस बारे में बेहद बारीकी से बताते हैं. वह कहते हैं दिल्ली के लोगों ने नाहक ही इस किले को भुतहा मान लिया है. उनके ऐसा मानने के पीछे कोई ठोस वजह तो नहीं है, लेकिन इतिहास में जाएं तो ये सामने आता है कि औरंगजेब ने अपनी बेटी को यहां कैद करके रखा था. कुछ इतिहासकार कहते हैं कि वह यहां 20 सालों तक कैद रही, लेकिन विवेक शुक्ला के मुताबिक उस पर जुल्म की इंतिहा हुई, शहजादी को भूखा-प्यासा रखा गया और आखिरी कुछ दिन बहुत मुश्किल भरे रहे. जेब-उन-निसा भूख-प्यास के कारण 22 दिनों में तड़प-तड़प कर मर गई.
इस किले के साथ फांसी और सजा-ए-मौत वाले बहुत से ऐतिहासिक किस्से जुड़े हुए हैं और धीरे-धीरे इन्हीं किस्सों के आधार पर सुनसान होने से यह किला भुतहा किला के नाम से बदनाम हो गया. प्रेत और आत्माओं की अफवाह भी इसी वजह से है. हालांकि एएसआइ के अधिकारी और किले के गेट पर ड्यूटी देने वाले सीआइएसएफ के जवान इसकी पुष्टि नहीं करते हैं.
आखिर क्यों कैद में थी औरंगजेब की बेटी? सवाल उठता है कि आखिर औरंगजेब ने अपनी ही बेटी को क्यों इस जिल्लत के साथ कैद करके रखा था? आखिर वो क्या वजहें रहीं जिसने एक बादशाह को, जो बाप भी था, उसे अपनी बेटी के साथ इस हद तक क्रूरता करने पर उतारू कर दिया. इसकी वजह थी शहजादी की शख्सियत, ठीक वैसी ही शख्सियत जिसने पहले दाराशिकोह और औरंगजेब के बीच में खाई पैदा की थी. असल में शहजादी उन सभी चीजों और बातों से बेहद प्यार करती थी, जिनसे औरंगजेब नफरत करता था.
ये सारी चीजें थीं, गीत-संगीत, शायरी, कविता, गजल-नज्म और कला के अलावा दूसरे धर्मों की बातें. औरंगजेब को ये सब बिल्कुल रास नहीं आता था. शहजादी जेब-उन-निसा की शख्सियत पर लेखक अफसर अहमद भी अपनी किताब 'औरंगजेब: नायक या खलनायक' में लिखते हैं कि मुगल शहजादी अपने स्वभाव से सूफी महिला थीं. वह अपने पिता की तरह कट्टरपंथी नहीं थी, बल्कि दयालु हृदय वाली महिला थी जिसने कई गरीबों की मदद की. वह अनाथों और महिलाओं की मदद करती थी और हर साल मक्का मदीना जाने वाले लोगों की जरूरतें भी पूरी किया करती थीं.
कैसी थी जेब-उन-निसा की शख्सियत शहजादी जेब-उन-निसा का जन्म 15 फरवरी, 1688 को हुआ था और उसकी मां दिलरस बानो थी. बचपन से ही शहजादी में पढ़ने की ललक थी. औरंगज़ेब ने उसे पढ़ाने के लिए एक महिला शिक्षक हाफ़िज़ा मरियम को रखा था. यह महिला अरबी और फारसी जानती थी और इसकी वजह से शहजादी भी अपने पिता की तरह ही क़ुरान में निपुण हो गई. जब वह सिर्फ 7 साल की थी तभी हाफ़िज बन गई. औरंगज़ेब को अपनी बेटी पर बहुत फख्र हुआ था और उसने 30 हजार सोने की मोहरें उसे दी थीं. इसके अलावा उन्हें कई विद्वानों ने पढ़ाया जिसमें, सईद अशरफ माज़ंदरानी भी शामिल थे. शाह रुस्तम ग़ाजी ने उसे साहित्यिक ज्ञान दिया और उसने गणित और नक्षत्र विज्ञान की भी जानकारी ली.

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