किस्सा-ए-दास्तानगोई... मंच पर जिंदा हुई कर्ण की महान गाथा, श्लोक और शायरी की अद्भुत जुगलबंदी ने बांधा समां
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दास्तानगोई' इस साल अपने रिवाइवल के 20 साल पूरे कर रही है. आज से 20 साल पहले तक दास्तानगोई थी भी और नहीं भी. जो इसे जानते थे वो खुद दास्तान बन चुके थे और तकरीबन 100 सालों तक इसके फनकार यूं समझिए कि नापैद (पनपे नहीं) रहे. खुशी मनाइये कि पिछले 20 साल दास्तानगोई के इंकलाब के गवाह रहे हैं. ये इंकलाबी सुबहें जिस शख्स की कोशिशों से रौशन हैं, उसका नाम है महमूद फारूकी.
पीली चमकदार तेज रौशनी से मंच के बीच का हिस्सा रौशन है. इस बीच वाले हिस्से में तख्त सजा है. दो मसनदें रखी हैं. सफेद चद्दर, जिस पर सिलवटों के निशान कहीं नहीं है, वो इंतजार में हैं किसी शख्स के कि वो आए और तशरीफ पेश लाए. तख्त के दोनों सिरों पर मोमबत्तियां हैं. मोमबत्तियों में लौ है. इनके बगल में ही दोनों ओर चांदीनुमा कटोरे आब (पानी) से भरे हैं.
आग और पानी का ये साथ बहुत ताकतवर है. इतना ताकतवर कि आदमी को साल, सवा साल, कई सौ साल या और भी सदियों-युगों तक पीछे ले जाने की ताकत रखता है. क्योंकि वो आग ही तो थी जिसके धुएं पर बैठकर सभ्यता ने इतने युगों का सफर तय किया है और वो पानी ही तो था, जिसकी कयामत (प्रलय) से बचकर हम जिंदगी के किनारे लगे थे.
मंच का ये बखान अभी पूरा ही हुआ था कि एक सफेद चिकनकारी अंगरखा पहने एक शख्स तख्त के सामने नमूदार होता है और खवातीन-ओ-हजरात को आदाब अर्ज करते हुए बड़ी ही अदा से उस तख्त पर बैठ जाता है. न..न आप इस शख्स को तख्तनशीं कतई न समझिएगा. ये तख्त पर बैठा जरूर है, लेकिन तुगलक नहीं है. ये तो वो आदमी है, जिसके जेहन में न जाने ऐसे कितने तुगलकों की कहानियां परतों की शक्ल में है और ये भी कि तवारीख (इतिहास) लिखने वालों ने उनके लिए क्या दर्ज कर रखा है. सिर्फ तुगलक क्यों, ये वो शख्स है जो सुनाने पर आए तो सब सुनाता है. दरवेशों के किस्से, मजनुओं का हाल, बीती कोई बात, दिल के जज्बात. मजलूमों का दर्द और जख्मी के जख्म भी उसकी दास्तान में जगह पाते हैं.
बीता शनिवार ऐसे ही एक दास्तानगो की सोहबत में बीता. नाम महमूद फारूकी... और जब फारूकी साहब ने दास्तानगोई की हर रस्म को निभाते हुए किस्सा कहना शुरू किया तो जानते हैं क्या किया... बड़े ही नत भाव से दोनों हाथ जोड़े और कहा- ये दास्तान जिसकी है और वो जिस दास्तान का हिस्सा है, उसे जब मैं आपके सामने पेश करूं तो मेरा फर्ज बनता है कि उसे याद करूं जो इस दुनिया में हर दास्तान की वजह है. जो उसकी शुरुआत है और खात्मा भी. वो कौन? वो है नारायण...
नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम्. देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत्.
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दास्तानगोई' इस साल अपने रिवाइवल के 20 साल पूरे कर रही है. आज से 20 साल पहले तक दास्तानगोई थी भी और नहीं भी. जो इसे जानते थे वो खुद दास्तान बन चुके थे और तकरीबन 100 सालों तक इसके फनकार यूं समझिए कि नापैद (पनपे नहीं) रहे. खुशी मनाइये कि पिछले 20 साल दास्तानगोई के इंकलाब के गवाह रहे हैं. ये इंकलाबी सुबहें जिस शख्स की कोशिशों से रौशन हैं, उसका नाम है महमूद फारूकी.
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