
'आज का रावण अपने आपको सेक्युलर कह देता है...', सनातन को लेकर धर्म संसद में बोले महंत राजू दास
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महंत राजूदास और महंत नवल किशोर दास ने दोनों ही सनातन धर्म की स्थिरता और वर्तमान में उसके विरुद्ध बढ़ती चुनौतियों पर चिंतन व्यक्त किया. उन्होंने चेताया कि आधुनिकता की ओर बढ़ते समाज में धर्म और संस्कृति की सच्चाई नहीं खोनी चाहिए.
आज तक की धर्म संसद में पहुंचे महंत राजूदास ने सनातन के प्रभाव पर कहा कि आज के परिपेक्ष में एक तरह से सनातन धर्म का अपमान करना आम हो गया है. सनातन की परंपरा बहुत विशाल है. रावण जैसा विद्वान, पंडित, कर्म राक्षस की प्रवृति हो गई. जिस तरह से उसकी प्रवृति में चेंज आ गया तो उसे आज कोई न पूछता है, न पूजता है. वो रावण कम से कम भगवान भोले को मानता था, त्रिकाल संध्या करता था, वेद में आस्था था लेकिन आज का रावण अलग सा है, जरा सी भी आस्था नहीं लेकिन सिर्फ कह देता है वो सेक्युलर है.
महंत राजू दास ने कहा कि सनातन को बदनाम करना एक आसान तरीका है. आज का रावण सेक्युलर है. धर्म का पैमाना अलग कर देता है, संस्कृति का पैमाना अलग कर देता है. उन्होंने कहा कि हमारा सनातन कहता है कि धर्म की जय हो, अधर्म का नाश हो, प्राणियों में सद्भाव हो और विश्व का कल्याण हो. हमारी संस्कृति जीव जंतु में भी कल्याण की बात करता है. हिंदुस्तान में आज हम 9 राज्यों में अल्पसंख्यक होते चला जा रहा है. उन्होंने पूछा कि आखिर हम सनातनी ही क्यों कम होते जा रहे हैं.
महंत नवल किशोर दास ने कुंभ की संस्कृति के बारे में क्या कहा?
महंत नवल किशोर ने कहा कि संपूर्ण मानव जाति को मानवता क्या है, जीवन क्या है, इसका प्रदर्शन कहीं अगर मिलता है तो वो कुंभ में मिलता है. कुंभ पूर्णता का प्रतीक है. पूर्ण ही पूर्णता को प्रदान कर सकता है. सनातन शास्वत है. गंगा की धारा की गति में परिवर्तन हो सकता है, लेकिन उसके गंगत्व में कोई परिवर्तन नहीं हो सकता. ऐसे ही जो हमारा सनातन धर्म है, उसकी आत्मसात में कई बार भिन्नता दिखाई देती है. ऐसे भी कलयुग है. स्थिति के मुताबिक लोग थोड़ा परिवर्तन करता है. ऐसे ही जो हमारा शास्वत धर्म है, उसमें निम्नता नहीं आ सकती. उन्होंने कहा कि मैं हल्का हो सकता हूं, मेरे विचार हल्के हो सकते हैं, लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि सनातन धर्म हल्का हो जाएगा, मैं इसे स्वीकार नहीं कर सकता.
उन्होंने कहा कि और हमारी आने वाली जो पीढ़ी है. हम सब अमृत की लालसा लेकर यहां आए हैं. हमें ये भी पता है कि अमृत से पहले कहीं न कहीं पहले विष प्रकट हुआ था. थोड़े बदलाव हो सकते हैं, भौतिकवाद, अर्थवाद बढ़ा है और तो धर्म में कही न कहीं निम्नता दिखाई देता है, परंतु है नहीं. गंगा में कितने भी गंदे नाले डाले जाएं, उसका गंगत्व तो नहीं बदलेगा लेकिन पानी मैला हो जाता है. इसी तरह हमारे जीवन में समय के विपरीतता के कारण, हमारे उपासना में वासना की वृद्धि हो जाती है, लेकिन शास्वत कभी खत्म नहीं हो सकता. कुंभ हमें नया रास्ता दिखाएगा.
सनातन का प्रारूप आजकल थोड़ा डेविएट क्यों हो रहा है?

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