
Bastar Review: 'बोरिंग' का नया पर्यायवाची बनकर आई Adah Sharma की फिल्म, खोज निकाला खराब फिल्ममेकिंग का नया स्तर
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डायरेक्टर सुदिप्तो सेन की इस फिल्म के ट्रेलर में, सोशल मीडिया पर रोजाना पकने वाली राजनीति की मात्रा देखते हुए ये बहस छिड़ गई कि 'बस्तर: द नक्सल स्टोरी एक प्रोपेगैंडा फिल्म है. सवाल ये है कि क्या आपको इस बारे में चिंता करने की जरूरत है?
वो शायद किसी और दौर-वक्त-हालात की बात थी जब फिल्ममेकर्स धीमी आंच पर, फिल्म-मेकिंग के सारे साजोसामान के साथ आपके सामने पर्दे पर एक लबाबदार डिश तैयार करते थे- सिनेमा. कहानी को लच्छेदार, परतदार बनाने पर फोकस होता था. इस डिश में जब एक सीक्रेट इंग्रीडिएंट मिल जाता था तो क्या कहने… ज़ायका ही अद्भुत-अद्वितीय-अकल्पनीय हो जाता था. और ये सीक्रेट इंग्रीडिएंट होता था- राजनीति. और ‘पिच्चर’ की कहानी में ये पॉलिटिक्स डिकोड कर लेने वाले खुद को बड़े गर्व के साथ ‘सिनेमा का कीड़ा’ मान लेते थे.
फिर एक दिन धीमी आंच पर पकती हुई कहानी का स्वाद ले रहे एक चस्केबाज प्रेमी से पॉलिटिक्स करते हुए दीपिका पादुकोण ने कहा- ‘जरा शॉर्ट में बतलाओ न, सीधे पॉइंट पे आओ न’. बस… फिर वन लाइनर्स के दौर में कहानी कहने की कला, ‘सो आउटडेटेड’ हो गई. पॉलिटिकल फिल्मों की वो लबाबदार डिश यूं बदली कि वेस्ट दिल्ली के तमाम ढाबों की तरह, एक ही ग्रेवी को 'स्पेशल इंग्रीडिएंट' बताकर हर डिश का बेस बना दिया गया. अब बॉलीवुड उसमें आवश्यकता-स्वाद-डिमांड अनुसार, सब्जी-चाप-पनीर के टुकड़े मिलाकर परोस देता है.
हां, तो अगर पिक्चर में पॉलिटिक्स दिखाने के सौंदर्यशास्त्र की बात करें तो जहां एक कोने पर ‘आर्टिकल 370’ और ‘उरी’ ठहरती हैं, वहीं एक सौ अस्सी डिग्री पर दूसरे कोने पर बैठेगी ‘बस्तर: द नक्सल स्टोरी’.
प्रोपेगैंडा की चुहिया डायरेक्टर सुदिप्तो सेन की इस फिल्म के ट्रेलर में, सोशल मीडिया पर रोजाना पकने वाली राजनीति की मात्रा देखते हुए ये बहस छिड़ गई कि 'बस्तर: द नक्सल स्टोरी एक प्रोपेगैंडा फिल्म है. सवाल ये है कि क्या आपको इस बारे में चिंता करने की जरूरत है?
पहली बात, अगर मेकर्स ने इसे किसी छिपे हित या प्रोपेगैंडा के लिए बनाया है तो उन्हें ये समझना पड़ेगा कि सी ग्रेड स्टाइल की अजीबोगरीब, बचकाना और बोरिंग फिल्म से दुनिया में कभी भी, किसी को भी प्रभावित नहीं किया जा सकता. और दूसरी बात, अगर इसमें ऐसा कोई हित नहीं है तो इसका सीधा मतलब है कि मेकर्स को सड़क पर नोटों से भरे बोरे मिले थे, जो उन्होंने एक पूरी टीम को फिल्म मेकिंग सिखा कर उनका भविष्य उज्जवल बनाने पर खर्च किए हैं. हालांकि ऐसी आला दर्जे की उबाऊ फिल्म बनाने वालों का भविष्य उज्जवल तो शायद न हो, मगर मेकर्स अपनी इस जेनुइन कोशिश के लिए बधाई के पात्र हैं! क्यों? तो सुनिए...
हाल ही में रिलीज हुई 'आर्टिकल 370' को देखिए, फिल्म का मकसद था एक चर्चित राजनीतिक घटना में पर्दे के पीछे घटी चीजों को दिखाना. जबकि 'द कश्मीर फाइल्स' का दावा कश्मीरी पंडितों के साथ हुई हिंसा को दिखाना था. वो बात अलग है कि उसमें जो दिखाया गया, उसके बहाने जो नहीं दिख रहा उसे तोड़-मरोड़ कर पेश किया गया था. पॉइंट ये है कि दोनों फिल्मों ने कहानी में जो परोसने का दावा किया, वो पर्दे पर दिखाया.

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