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हिंदी गानों में ऐसे हुई सीटी की एंट्री और हमेशा के लिए बदल गया फिल्मी म्यूजिक
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सीटीबाजों को हिंदी फिल्मों ने कई ऐसे गाने दिए हैं जिनमें सीटी की बड़ी प्यारी धुन सुनाई देती है. इन धुनों को लोग अक्सर रूटीन कामों के दौरान दोहराते रहते हैं. मगर क्या आपने कभी सोचा है कि वो पहला हिंदी गाना कौन सा था जिसमें होठों की घुमाने से बने इस नेचुरल म्यूजिक इंस्ट्रूमेंट की धुन इस्तेमाल हुई थी?
फरवरी के एक अलसाए संडे की सुबह है. गुलजार साहब की 'निम्मी निम्मी ठंड' और प्रसून जोशी की 'गुनगुनी धूप', बालकनी में साथ बैठकर चाय पी रहे हैं. कामकाजी दिनों की रफ्तार में स्पीड-ब्रेकर बनकर आई इस सुबह का 'केमिकल लोचा' कुछ ऐसा है कि सीटी में कोई गाना पिरोने की वाइब अपने आप बन सकती है.
पिच्चर-प्रेम के गणित की किताब में प्रायिकता का चैप्टर कहता है कि होठों को गोल करके जब कोई बॉलीवुड प्रेमी सीटी उठाता है तो वो कुछ चुनिंदा गानों की तरफ लपकता है. जैसे- आमिर खान की फिल्म 'फना' का गीत 'चांद सिफारिश'; शाहरुख की 'दिल तो पागल है' का 'अरे रे अरे ये क्या हुआ' या फिर सीटी की वो धुन जो देव आनंद की फिल्म 'नौ दो ग्यारह' के गाने 'हम हैं राही प्यार के' में है.
ये केवल सीटी में छेड़े जाने वाले कुछ सबसे पॉपुलर गाने हैं. आपके बॉलीवुड म्यूजिक प्रेम की गहराई के हिसाब से ये रेंज कम-ज्यादा भी हो सकती है. इसमें तमाम और गाने भी शामिल हो सकते हैं. सीटीमारों को हिंदी फिल्मों ने कई ऐसे खूबसूरत गाने दिए भी हैं जिनमें सीटी की बड़ी प्यारी धुन सुनाई देती है. इन धुनों को लोग अक्सर रूटीन कामों के दौरान दोहराते रहते हैं. मगर क्या आपने कभी सोचा है कि वो पहला हिंदी गाना कौन सा था जिसमें बिना किसी खर्च, होठों की घुमाने से बने इस नेचुरल म्यूजिक इंस्ट्रूमेंट की धुन इस्तेमाल हुई थी?
क्लासिकल संगीत की हदें तोड़कर आए फ्रीस्टाइल गाने पहली बोलती फिल्म 'आलम आरा' (1931) के साथ गाने भारतीय फिल्मों में एंट्री ले चुके थे. लेकिन फिल्मी गानों का शुरूआती दशक अधिकतर ऐसे गानों का रहा जो हिंदुस्तानी क्लासिकल संगीत के रागों पर बेस्ड होते थे. फिल्मी गाने बनाते वक्त भी भारतीय संगीत परंपरा के कायदों का ध्यान रखा जाता था. अविभाजित भारत में फिल्म इंडस्ट्री का केंद्र सिर्फ मुंबई ही नहीं, बल्कि लाहौर और कोलकाता भी हुआ करते थे.
डेंटिस्ट्री की पढ़ाई कर रहे 'मास्टर' गुलाम हैदर, बाबू गणेशलाल से संगीत सीख रहे थे. संगीत में उनका मन ऐसा रमा कि कलकत्ता (अब कोलकाता) में जाकर थिएटर में हारमोनियम प्लेयर बन गए. सिंध (अब पाकिस्तान में) में जन्मे गुलाम हैदर, लाहौर आ गए और पिता-पुत्र जोड़ी, रोशन लाल शौरी-रूप किशोर शौरी की फिल्म प्रोडक्शन कंपनी कमला मूवीटोन से जुड़ गए. लाहौर से चलने वाली ये कंपनी उन कहानियों को सिनेमा के पर्दे पर उतार रही थी, जो पंजाबी लोक-संस्कृति से जुड़ी थीं. पंजाबी कल्चर को समझने वाले गुलाम हैदर ने 'गुल-ए-बकावली' (1939) और 'यमला जट्ट' (1940) जैसी फिल्मों में म्यूजिक कंपोज किया.
वो गानों में एक नया एक्स्परिमेंट कर रहे थे और रागों के साथ-साथ अपने गानों में पंजाबी लोक-संगीत की तानें और एनर्जी को आजमाने लगे थे. उनकी सबसे बड़ी म्यूजिकल हिट बनी 1941 में आई फिल्म 'खजांची'. माना जाता है कि इस फिल्म ने हिंदी फिल्म संगीत को हमेशा के लिए बदल दिया. इस फिल्म का म्यूजिक क्लासिकल संगीत की बंदिशों से मुक्त था और इसमें एक फ्रीस्टाइल था. धुनों में एक नए तरह का उत्साह और एनर्जी थी. 'खजांची' में शमशाद बेगम ने कई सोलो गाने गाए थे और पहला गाना फिल्म की शुरुआत में ही था. गाने का नाम था 'सावन के नजारे हैं' और ये गाना कई चीजों के लिए आइकॉनिक बन गया.
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