
सरकार एंटरटेनमेंट इंडस्ट्री को शराब-सिगरेट की तरह समझती है - संजय मिश्रा
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एक्टर संजय मिश्रा का मानना है कि हमारे देश की सरकार एंटरटेनमेंट इंडस्ट्री को शराब-सिगरेट के नजरिये से देखती हैं. जबकि गर्वनमेंट को इसे सीरियसली लेते हुए इसकी ग्रोथ और टिकट प्राइस पर नए रुल्स बनाने चाहिए. अपनी नई फिल्म 'वध' के बारे में हमारे साथ बात रहे संजय ने, सिनेमा के मौजूदा हाल पर भी दिल खोलकर बातें कीं.
संजय मिश्रा को इंडस्ट्री में लगभग तीन दशक होने जा रहे हैं. करियर के इस लंबी जर्नी के बावजूद संजय आज भी हैरान हो जाते हैं, जब कोई उनके पास उनको ध्यान में रखकर लिखी स्क्रिप्ट लेकर आता है. संजय की फिल्म वध की चर्चा है जिसमें वो अपनी एनएसडी (नैशनल स्कूल ऑफ ड्रामा) की सीनियर नीना गुप्ता संग नजर आने वाले हैं. अपने करियर, उतार-चढ़ाव, बदलते सिनेमा पर संजय हमसे दिल खोलकर बातचीत करते हैं.
फिल्म में दोनों ही एनएसडी के दिग्गज आमने सामने हैं. नीना जी संग काम करने का अनुभव कैसा रहा? -बड़ी मजेदार बात है.. नीना जी मुझे अपना सीनियर समझती हैं और मैं उनको अपना सीनियर मानता हूं. एक-दूसरे को सम्मान देते-देते हमने यह फिल्म कर ली. शुरू में नीना जी संग काम करने को लेकर काफी डरा हुआ था. नीना जी का अपना एक अनुसाशन और डिसीप्लीन रहा है. सेट पर एक डर का माहौल रहता था कि नीना जी आ गईं. वो जो भी बोलती हैं, दिल से बोलती हैं. मेरे काम का बेहतरीन एक्स्पीरियंस रहा है. उनके बिना शायद ही यह संभव हो पाता.
असल में कौन सीनियर है? -वो ही सीनियर हैं.. मुझे आज भी याद है, जब पहली बार वो एनएसडी आई थीं, तो पूरे कॉलेज में हलचल मच गई थी. हम सभी उनकी एक झलक पाने को बेताब हो गए थे. मैं तो भीड़ में इतना खो गया कि झाड़ी में जाकर धड़ाम से गिर पड़ा. इतनी खूबसूरत एक्ट्रेस हैं. मैंने सेट पर जब उन्हें बताया कि आपकी वजह से झाड़ी में गिरा और खरोंच आ गई थी, तो उनका टो टूक सा जवाब था कि चल झूठ मत बोल.. उनको यकीन नहीं आया था. जब वो एनएसडी आई थीं, उस वक्त जाने भी दो यारों, उत्सव रिलीज हो चुकी थी.
आप मानते हैं कि नीना को उनका ड्यू अब जाकर मिला है? -हां, बिलकुल.. अब जाकर उनका एक्सपीरियंस काम आ रहा है. ये हम एक्टर्स के साथ ऐसा ही होता है. जब हम मुंबई आ रहे होते हैं, तो हमें हीरो का भाई, दोस्त, विलेन के पीछे, यही सब तो मौके दिए जाते हैं. फिर बाद में तपने के बाद हम सोना बनते हैं. लोगों को हमारे काम की वैल्यू पता चलती है. मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ है. नहीं सोचा था कि वध में सेंट्रिक किरदार मुझे सोचकर लिखा जाएगा. वहीं सर्कस भी आने वाली है. दोनों ही बिलकुल अलग हैं. एक एक्टर की चाह होती है कि वो अलग-अलग किरदारों में दिखे. मेरे साथ अच्छी चीज हो रही है कि लोग धीरे-धीरे मुझे देखकर रोल्स लिख रहे हैं. मैं बहुत हैरान हो जाता हूं. अभी तक यकीन नहीं कर पाता हूं.
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तो आप मानते हैं कि आज के सिनेमा में हीरो की परिभाषा बदली है? -ऐसा नहीं है कि अभी से बदला है. काफी समय पहले भी ये होता आया है. विमल रॉय के दौर में एक अलग किस्म का सिनेमा बनता रहा है. मैंने भी बचपन के दौर में कथा जैसी फिल्में देखी हैं, केतन मेहता की मिर्च मसाला, गिरिश कर्नाड की फिल्में भी बन तो रही थीं. उस समय उन्हें आर्ट या साइड सिनेमा का टैग दे दिया जाता था. अब उसी तरह की सिनेमा ने फ्रंट लाइन ले लिया है. अब जो हीरो प्यार के चक्कर में मार-धाड़ करता था, वो दौर गया. हमारी ऑडियंस भी समझ चुकी है कि जिंदगी में और भी गम है मोहब्बत के सिवा.. बधाई दो, कामयाब, आंखों देखी जैसी फिल्में पसंद की जा रही हैं. कंटेंट पर ऑडियंस का ध्यान गया है. ज्यादातर फॉर्म्यूला फिल्में ही बनती थीं, स्टीरियोटाइप किरदार होता था. संजय मिश्रा कहीं नौकर बन रहा है, तो कहीं पर कुछ हो रहा है. वो दौर गया. अब ऑडियंस इन फॉर्म्यूला को नकार रही है.

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