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पॉक्सो मामले में 6 साल की देरी से दाखिल की चार्जशीट, कोर्ट ने जांच अधिकारी को लगाई फटकार
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कोर्ट के मुताबिक, इस मामले में अप्रैल 2017 में आईपीसी की धारा 377 (अप्राकृतिक अपराध) और 506 (आपराधिक धमकी) और पोक्सो अधिनियम की धारा 6 (गंभीर यौन उत्पीड़न) के तहत एफआईआर दर्ज की गई थी.
दिल्ली की एक अदालत ने पॉक्सो (POCSO) एक्ट के मामले में छह साल की देरी के बाद चार्जशीट दाखिल करने पर जांच अधिकारी (IO) को फटकार लगाई है. अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश अनु अग्रवाल चार्जशीट दाखिल करने में हुई देरी को माफ किए जाने की याचिका पर सुनवाई कर रही थीं.
कोर्ट ने दिल्ली पुलिस कमिश्नर से देरी के लिए जिम्मेदार अधिकारियों के खिलाफ जांच करने और यह बताने को कहा कि क्या इसे रोकने के लिए कोई तंत्र है. 25 जनवरी के अपने आदेश में, कोर्ट ने कहा कि इस मामले में अप्रैल 2017 में आईपीसी की धारा 377 (अप्राकृतिक अपराध) और 506 (आपराधिक धमकी) और पोक्सो अधिनियम की धारा 6 (गंभीर यौन उत्पीड़न) के तहत एफआईआर दर्ज की गई थी.
हालांकि, कोर्ट ने कहा कि चार्जशीट 24 दिसंबर, 2024 को ही दाखिल की गई. जिसमें देरी के पीछे के कारण शामिल थे. इस दौरान जांच अधिकारी का तबादला कर दिया गया था; उनके पास काम का बहुत बोझ था; कुछ व्यक्तिगत मुद्दे थे और केस फाइल का रिकॉर्ड गायब हो गया था.
अदालत ने बताया कि आवेदन के साथ कोई दस्तावेज संलग्न नहीं किया गया था, जिससे पता चले कि आईओ ने स्थानांतरण के बाद पुलिस स्टेशन के रिकॉर्ड रूम में अंतिम रिपोर्ट सौंपी थी. यह साफ है कि आरोप पत्र आईओ के पास ही रहा. आवेदन में बताए गए आधार केवल दिखावा हैं. आईओ ने इतने गंभीर अपराध में छह साल तक आरोप पत्र अपने पास रखा और उसे दाखिल नहीं किया.
अदालत ने आरोप पत्र दाखिल करने को लेकर दंड प्रक्रिया संहिता के प्रावधानों के उल्लंघन को रेखांकित किया. न्यायाधीश ने कहा, 'अपराध के समय बच्चा लगभग सात साल का था और अब, वह लगभग 13-14 साल का होगा. मुझे आश्चर्य है कि छह साल बाद उसे घटना के बारे में कितना याद होगा, क्योंकि उम्र के साथ याददाश्त फीकी पड़ जाती है और बहुत छोटे बच्चों के मामले में तो यह और भी तेजी से फीकी पड़ जाती है.'
एएसजे अग्रवाल ने आगे कहा कि आईओ ने आरोपी का पक्ष लिया और पीड़ित के त्वरित सुनवाई के अधिकार में देरी की. कोर्ट ने कहा 'यह स्पष्ट है कि पुलिस स्टेशन में जांच और संतुलन की कोई व्यवस्था नहीं है, जिससे यह सुनिश्चित हो सके कि अदालत में भेजे गए आरोपपत्र तुरंत अदालत में दाखिल किए जाएं और यह देखा गया है कि कई मामलों में, आईओ कई वर्षों तक किसी को सूचित किए बिना फाइल अपने पास रखते हैं. ऐसा विशेष रूप से उन मामलों में किया जाता है, जिनमें आरोपी को गिरफ्तार नहीं किया गया है या वह जमानत पर है.'
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