Ground Report: दिल्ली के करीब नसबंदी कर बसाए गए लोगों की कहानी, जिन्हें न कोई हिंदू मानता है, न हिंदुस्तानी
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गंगा नगर! दिल्ली से महज 80 किलोमीटर दूर गंगा किनारे बसे इस गांव के लिए कोई सड़क नहीं. जंगल और कच्चे रास्तों से गुजरते हुए भीतर पहुंच भी जाएं तो न बिजली मिलेगी, न पक्के घर. यहां बसे 122 परिवार उनके वंशज हैं, जिन्हें अस्सी के दशक में नसबंदी के बदले जमीन का वादा मिला था. बांग्ला बोलने वाले ये लोग अब बांग्लादेशी और हिंदुस्तानी पहचान के बीच पुराने केस की तरह 'मुल्तवी' पड़े हैं.
‘जब हम यहां आए तो जमीन या तो बंजर थी, या दलदली. दिनभर चटाई बुनते. रात में खाइयां ढांपते. जहां सांप-बिच्छू डोलते थे, उस सूने टापू को सोना बना दिया. 40 साल बाद एकदम से हम घुसपैठिया बन गए. पहले पहचान छीनी. अब मिट्टी छीन रहे हैं’. सुमित्रा एक किलोमीटर में फैले गांव का कोना-कोना घुमाती हैं. खासकर हर घर से सटा मंदिर और तुलसी चौरा. फिर पूछती हैं- किसी बांग्लादेशी मुस्लिम को आपने पूजा-पाठ करते देखा है! हमें तो ये भी नहीं पता कि वहां कौन सी नदी बहती है. सालभर पहले मेरे पति की अस्थियां गंगा मैया में बहीं. मेरी भी उसी में समाएंगी. गुस्से में सनी गीली आवाज गंगा को ‘मैया’ बोलते हुए हाथ जोड़ना नहीं भूलती. वो आदत, जो सिर्फ आदत से ही आती है. गढ़मुक्तेश्वर में बृजघाट चेकपोस्ट पार करते ही यूपी की तस्वीर बदलने लगती है. हमें गंगा नगर जाना है. करंट लोकेशन पास है, लेकिन ड्राइवर जाने को राजी नहीं. ‘रास्ता नहीं है. फंस गए तो!’ हम फोन करके लोकल मदद का इंतजार करते हैं.
आखिरकार मिट्टी-रेत और अधसूखी नदी से बने दलदल से होते हुए हम भीतर पहुंचे. बाइक रुक जाती है. पीछे-पीछे गाड़ी भी. एकदम से जैसे बुढ़ापा आ जाए, वैसे ही अचानक-से गांव सामने खड़ा है. I Love...या वेकलम टू... जैसा कोई बोर्ड नहीं. गंगा नगर लिखी नई-पुरानी तख्ती भी सामने नहीं दिखती. ‘हमारे गांव की एक ही पहचान है. खस्सी किए लोग और खस्सी पड़े वादे.’ हिंदी-घुली बांग्ला में एक शख्स कहता है. आवाज में पिच्च से थूक देने का भाव. इंटरव्यू का तामझाम बिछाने का मौका मिल सके, इससे पहले ही गांव की इकलौती चौपाल पर आया ये शख्स तेजी से लौट भी जाता है. ‘ये नसबंदी के बाद बचे कुछ लोगों में से एक है. बात नहीं करेंगे. बस, गुस्सा दिखाने आए थे!’ एक आदमी बात संभालता है. आसपास लोग जमा हैं. सबके पास अपनी कहानी. सुमित्रा इनमें से एक हैं. वक्त से झुलसे हुए चेहरे पर इंतजार की काली बिंदी लगाए ये महिला गंगा नगर पहुंचने वाले शुरुआती लोगों में से थीं. जब हम यहां आए तो बृजघाट के बाद बस गंगा मैया ही दिखती थीं. पता नहीं लगता था कि कहां जाना है. पहले पहुंच चुके लोगों ने तब एक तरीका निकाला. बांस की बल्लियां जोड़-जोड़कर टापू पर लाल कपड़ा बांध दिया. वही देखते हुए परिवार के परिवार यहां आने लगे. मैं अपने पति और लड़का-लड़की के साथ पहुंची. अब तक दूसरों के खेतों में काम करते. पहली बार अपनी जमीन पर खेती करने की आस थी, लेकिन यहां पहुंचते ही दिल बैठ गया. चारों ओर रेत थी, दलदल, या जंगल. दूर-दूर तक न कोई दुकान, न मकान. रात में सोते तो गंगा मैया झांय-झांय बोलतीं. थोड़े दिन संभलने में लग गए. बांस की बल्लियां और फूस जोड़कर घर बनाया. बच्चों को उसमें रखा और काम शुरू कर दिया. दिनभर चटाई बुनते. रात में सब मिलकर गड्ढे भरने का काम करते. दिन-दिन करके महीने लग गए. रूद्रपुर (उत्तराखंड) में रिश्तेदारी में रहते. मजदूरी करके खा लेते. यहां शहर इतना दूर था कि जोड़े हुए पैसे भी खत्म हो गए. बस, तसल्ली थी कि सब अपना है. घर. खेत. तो अब क्या परेशानी है? गुलेल से छूटे कंकड़ की तरह दन्न से आवाज छूटती है- जंगल वाले (फॉरेस्ट डिपार्टमेंट) जगह खाली करने का नोटिस दे चुके. पक्के घर बनाने की मनाही है. किसी ने बनवाया भी तो तुड़वा दिया. कहते हैं, आप लोग बांग्लादेशी घुसपैठिए हैं. मंदिर बना रहे थे, उसे भी रुकवा दिया. हमारे भगवान भी हमारी तरह कच्ची छत के नीचे रह रहे हैं.
कच्ची दीवारों और एसबेस्टस की छत वाला मंदिर सामने ही है. काली और दुर्गा की तस्वीरों के आगे ताजा फूल और दीप-धूप के नए-पुराने निशान. सुमित्रा से बातचीत के बीच कई आवाजें गूंज रही हैं. ठुकराए जाने के इंतजार में अपनाई गई इन आवाजों में शिकायत कम है, हैरानी ज्यादा. गले में तुलसी माला है. घरों में पूजा की चौकी. और बोलचाल का ढब खालिस देसी. हम तो तुमसे भी ज्यादा हिंदू हैं. फिर कैसे तुम लोग हमें घुसपैठिया मान पाते हो! हाथ पकड़कर ये आवाजें मुझे पूरा गांव घुमाती हैं. हर घर से सटा हुआ कच्चा मंदिर. दोपहर के समय इनपर परदा पड़ा हुआ है. ‘भगवान सो रहे हैं.’ मैं कहीं जोर से कुछ न बोलने लगूं, इस डर से एक पुरुष मुंह पर अंगुली रखते हुए बताता है. फिर अपने घर के भीतर ले जाता है. एक तस्वीर दिखाते हुए कहता है- ये देखिए. कोलकाता में हमारे गुरुजी हैं. बिना इनकी पूजा किए मुंह में अन्न नहीं जाता. इसके बाद भी लोग आकर हमारे रोहिंग्या या बांग्लादेशी मुस्लिम होने की जांच कर रहे हैं.
कौन लोग आते हैं? कुछ दिन पहले ही एक टीम आई थी. किसी पार्टी की. उन्होंने हर घर के मुखिया का नाम पूछा. थोड़ा-बहुत गांव भी घूमे. कह रहे थे कि ऊपर से कहा गया है कि इस टापू पर बांग्लादेशी रहते हैं. उनकी जांच करो. किस पार्टी के लोग थे? वो नहीं बता सकते. अभी तो उम्मीद भी है. बोलेंगे तो एकदम ही बेआसरा हो जाएंगे. सालभर पहले पति को खो चुकी सुमित्रा अब भी साथ हैं. कहती हैं- हम कोई कबूतर तो नहीं जो कहीं से आकर किसी भी छत पर बैठ जाएंगे. सरकार ने खुद हमें ‘नस कटाने के बदले’ जमीन दी. अब वही हमें भगा रही है. तहसील जाओ तो कहते हैं कि ऊपर से आदेश आएगा तो सब ठीक हो जाएगा. ऊपर से आदेश आते-आते हम मुर्दाघाट जा रहे हैं. काली बिंदी वाले चेहरे पर बुझती-झिपती आस की लौ. अस्सी की शुरुआत में पश्चिम बंगाल से उत्तराखंड (तब उत्तरप्रदेश) आकर बसे भूमिहीन बंगालियों की नसबंदी करा दी गई. बदले में जमीन का वादा मिला. वादा पूरा भी हुआ. दिल्ली के करीब एक जमीन खोजी गई. गंगा किनारे. जंजीरों से नपाई हुई और पट्टे के नाम पर कच्चे-पक्के कागज थमा दिए गए.
बंगालियों का टोला उत्तराखंड के रूद्रपुर से गढ़मुक्तेश्वर आने लगा. करीब साढ़े 3 सौ परिवारों में से अब 122 परिवार बाकी हैं. कच्चे घरों की तरह इनके कागज भी कच्चे-पक्के हैं. मेरे मांगने पर आनन-फानन ही ‘सबूतों’ का ढेर लग गया. ज्यादातर फोटोकॉपी. छितरी स्याही वाले इन कागजों में से एक दस्तावेज साल 1966 की वोटर लिस्ट है. पश्चिम बंगाल के 24 परगना की लिस्ट. ये वो भूमिहीन परिवार थे, जो काम के लिए रूद्रपुर पहुंच गए. कुछ के पास ऐसे कागज हैं, जिनसे पता लगता है कि वे पूर्वी पाकिस्तान से भारत आए थे. मिनिस्ट्री ऑफ लेबर, एम्प्लॉयमेंट एंड रीहैबिलिटेशन से जारी ये डॉक्युमेंट्स 1970 के हैं, जो इनके भूमिहीन बंगाली होने को पक्का करते हैं. ये वो दौर था, जब पाकिस्तान में बांग्ला बोलने वाले हिंदुओं पर हिंसा उफान पर थी. खदेड़े जा रहे लोग, खासकर दलित हिंदू भारत के पश्चिम बंगाल आ रहे थे. एक राज्य पर भार पड़ने से बचाने के लिए तत्कालीन सरकार इन्हें देश के अलग-अलग हिस्सों में बसाने लगी. इसी कड़ी में बहुत से परिवार यूपी पहुंच गए. इन्हें ठौर तो मिला, लेकिन स्थाई नहीं. इलाके में गहरी पैठ रखने वाले एक अधिकारी नाम न बताने की शर्त पर कहते हैं- उस समय नसबंदी का काफी दबाव था. अफसरों को टारगेट पूरा करना था. तब ऐसे लोगों की खोज चली, जो आसानी से राजी हो जाएं. पाकिस्तान से आई हिंदू बंगाली आबादी सॉफ्ट टारगेट थी. वो लगातार भारत आ रही थी. कम पढ़े-लिखे और ज्यादा जरूरतमंद ये लोग नसबंदी के लिए तैयार हो गए. बदले में जमीन का वादा किया गया.
वादा पूरा भी हुआ, लेकिन ज्यादातर लोगों को वैसी जमीनें मिलीं, जो या तो बीहड़ में थीं, या बंजर में. कागजों के नाम पर फॉर्मेलिटी पूरी कर दी गई. न अधिकारियों के पास समय था, न इनके पास समझ. कच्चे कागजों की वजह से साल 1999 के बाद से इनसे वोटिंग राइट भी छिन गया. अब ये वैध उम्मीदों वाले अवैध लोग हैं. अधिकारी गंगा नगरवासियों से संवेदना रखते हैं, लेकिन कुछ करने की बात पर बेचारगी जतलाते हुए कहते हैं- आज नहीं तो कल, ये यहां से हटाए ही जाएंगे. जिनके पास वोटिंग का हक नहीं, उन्हें जीने का भी हक नहीं. गांव का कोई पंच-सरपंच नहीं, न ही इसकी कोई जरूरत है. दिल्ली से सटा होने के बाद भी आज तक यहां बिजली नहीं पहुंच सकी. बीते दो-तीन सालों से थोड़े मजबूत परिवार सोलर बैटरी से काम चला रहे हैं. बैटरी से क्या-क्या चल जाता है? बत्ती जला लेते हैं. रात में एकाध पंखा. दिन में गंगा किनारे बैठे रहते हैं. कोशिश करते हैं कि अंधेरा होने से पहले-पहले सब काम निपट जाएं. जिसको आप लोग कैंडल लाइट डिनर कहते हैं, वो हम रोज करते हैं- गांव का ही एक युवक अरुण कुमार मंडल हंसते हुए कहता है.
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