Ground Report: ओल्ड राजेंद्र नगर के उस इलाके की आंखों देखी, जहां ठीक एक माह पहले तीन UPSC छात्रों की गई जान
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‘मुझ जैसे ज्यादातर बच्चे एक किस्म के ताबूत में ही रहते हैं. न कोई खिड़की, न झरोखा. हमारी गलियों का आसमान भी चांद-तारों नहीं, बिजली के तारों से अटा रहता है. तिसपर दिल्ली की गर्मी. लाइब्रेरी ही इकलौता आसरा थी. अब हमारे पास अपने-अपने ताबूतों में लौटने के सिवाय कोई रास्ता नहीं.’
महीनाभर पहले दिल्ली के राऊ IAS कोचिंग सेंटर में एक बड़ा हादसा हुआ. तेज बारिश के बीच यहां बेसमेंट में चल रही लाइब्रेरी में पानी भरने से 3 स्टूडेंट्स की मौत हो गई. घटना के बाद एमसीडी ने धड़ाधड़ बहुत से कोचिंग सेंटरों की लाइब्रेरी सील कर दी. कई जगहों पर फायर एनओसी न होने की वजह से तालाबंदी हो गई. अब स्टूडेंट्स परेशान हैं. लाखों रुपयों के साथ सपने भी दांव पर लगे हुए.
एक छात्र कहता है- कमरा तो सोनेभर को लिया था. सुबह से रात लाइब्रेरी में ही समय बीतता. वहां एसी भी मिलता था, माहौल भी. अब या तो घर लौटना होगा, या बगैर खिड़की वाले उसी कमरे में पढ़ना सीखना होगा. लेकिन बेसमेंट में पढ़ना भी तो खतरनाक है! आपके ही तीन साथियों की जान जा चुकी? आपको क्या लगता है, बेसमेंट में लाइब्रेरी ही चलती थी. यहां कितने घर हैं, जहां बेसमेंट में पीजी हैं. वो भी बगैर कॉन्ट्रैक्ट के. कुछ हुआ तो खबर तक नहीं होगी. आवाज- बारिश में साबुन की तरह गल जाती हुई. चाय की टपरी पर टकराए 22 साल के इस चेहरे पर गुस्सा, डर और नाउम्मीदी के बादल आते-गुजरते. उत्तर प्रदेश के छोटे-से गांव से आया ये लड़का रोज IAS बनने के ख्वाब के साथ नहीं, उस ख्वाब की मौत के साथ जागता है. 27 जुलाई को हुए हादसे के ठीक महीनेभर बाद हम ओल्ड राजेंद्र नगर पहुंचे. राऊ कोचिंग सेंटर तक गए ही थे कि बारिश शुरू हो गई, मानो कुदरत खुद ही सीन रिक्रिएट कर रही हो. लगभग आधे घंटे के भीतर सड़कों पर ढाई से तीन फीट पानी भरा हुआ. बाइकें पूरी और कारें अधडूबी. बचने के लिए मैंने बगल के एक कोचिंग सेंटर की आड़ ले ली. बेसमेंट यहां भी सील्ड. सामने लोहे का गेट मजबूती से बंद. दो गार्ड्स बार-बार पंप चेक करते हुए. इसके बाद भी गेट के थोड़े-बहुत खुले हिस्से से पानी भरभराकर अंदर आ रहा था.
जल्द ही पार्किंग स्पेस में पानी जमा होने लगा. उसे ही दिखाते हुए सेंटर का एक कर्मचारी कहता है- पड़ोस में भी यही हुआ था. देखिए, बंद गेट से इतना पानी घुस सकता है तो गेट खुल जाए तब क्या होगा!
वो बेसमेंट में लाइब्रेरी चलाते थे, ये भी तो गलत है! ‘कहां नहीं चल रही! बच्चों को कम खर्च में बढ़िया रीडिंग स्पेस मिल जाता था. सेफ भी था. इतने सालों से चल रहा था, कभी ऐसे एक्सिडेंट के बारे में सुना! होना था, हो गया. इसमें एमसीडी की भी गलती है. हर बारिश यही हाल रहता है. उन्हें भी कुछ करना चाहिए. हम इतना किराया देकर स्पेस लेते हैं, उसे खाली कैसे पड़ा रहने दें. अभी भी सड़कें खोद रखी हैं.’ पानी की जद से दूर सीढ़ियों पर बैठे कर्मचारी के चेहरे पर खाया-अघाया भाव यहीं हमारी मुलाकात एक स्टूडेंट से हुई, जो पिछले दो सालों से तैयारी कर रहा है. नाम न बताने की शर्त पर वो कहता है- ‘एडेप्टेशन.’ उस हादसे के बाद लाइब्रेरी सील होने के बाद हमने यही सीखा. जो है, उतने में गुजारा कर लो. कमरे छोटे हैं. गर्मी है. माहौल नहीं मिलता. एक पंखा है, बिजली जाने पर वो भी घर्र-मर्र करता है. दूसरे साथियों के आने पर मकान मालिक किचकिच करता है. लेकिन हम वैसे ही पढ़ना सीख रहे हैं. जो नहीं कर सकते, वे वापस भी लौट रहे हैं. और आप? मैं इंतजार करूंगा. अभी नहीं तो महीनेभर में तो लाइब्रेरीज खुल ही जाएंगी. या फिर कोई दूसरा बंदोबस्त होगा. कोचिंग सेंटरों ने रीडिंग स्पेस के लिए साल-सालभर के पैसे ले रखे हैं, वे भी क्यों अपना नाम खराब करें. पता लगा, राऊ'ज के बंद होने पर वहां के स्टूडेंट्स दूसरी कोचिंग में भेज दिए गए. वहां कथित तौर पर उन्हें फ्री में पढ़ाया जा रहा है. हालांकि मुलाकात पर ऐसे दो सेंटरों ने ऑन-कैमरा ये कहने से साफ मना कर दिया. बेहद पुराने एक ऐसे ही कोचिंग इंस्टीट्यूट के एडमिनिस्ट्रेशन इंजार्ज कहते हैं- अगर हम सपोर्ट न करते तो कई बच्चे खुद को ही नुकसान पहुंचा लेते. छोटी जगहों से आए लड़के ज्यादा प्रेशर में थे. हमने उन्हें एकोमॉडेट कर लिया. फिलहाल उनसे कोई चार्ज नहीं लिया जा रहा. कॉफी के साथ इत्मीनान की भी चुस्कियां लेते एडमिन हेड कैमरे पर ये बात बोलने को तैयार नहीं. ‘वेलफेयर के लिए है, इसे क्या एडवरटाइज करना’- वे कहते हैं.
वहीं राऊ’ज का ही एक बच्चा इससे साफ इनकार करता है. वो कहता है- जैसे बड़े स्कूलों में दिखावे के लिए थोड़ी-बहुत सीट गरीब बच्चों को दे दी जाती हैं, फिर उनसे कोई मतलब नहीं रहता. हमारे साथ भी यहां वही ट्रीटमेंट हो रहा है.क्यों. क्या आपको पढ़ाया नहीं जा रहा! क्लास तो हो रही है लेकिन दबाव है कि थोड़े समय में इन्हें भी फीस दें. ओल्ड राजेंद्र नगर को खंगालने का सिलसिला यहीं खत्म हो जाता है. अब मैं मुखर्जी नगर की तरफ हूं. वो इलाका जहां से कितने ही बच्चे IAS के ठप्पे के साथ निकलते रहे. बहुत से ऐसे भी बच्चे हैं, जो आते तो सिविल सर्विस की तैयारी के लिए हैं, लेकिन कोचिंग के लिए विज्ञापन करने तक रह जाते हैं. जी हां, यहां की सड़कों पर कोचिंग सेंटरों की तरफ देखते हुए चलिए और मिनटभर में आप छोटे-मोटे झुंड के बीच होंगे. सबके सब आपको सबसे बढ़िया इंस्टीट्यूट दिलाने का वादा करते हुए. ओल्ड राजेंद्र नगर में इन लड़कों की पहचान है- मार्केटिंग एग्जीक्यूटिव, जबकि मुखर्जी नगर में ये प्रमोटर कहलाते हैं. काम- इंक्वायरी लाना, यानी मुझ जैसे किसी भावी क्लाइंट को कोचिंग सेंटर तक पहुंचा देना. हर इंक्वायरी के बदले 50 रुपए. ये वो लड़के (कोचिंग संस्थान इन्हें यही पुकारते हैं) हैं, जो IAS बनने का सपना लिए दिल्ली आए थे, लेकिन साल-दो साल बीतते-बीतते सपनों का बाग, जरूरत के जंगल में बदलकर रह गया. ऐसे ही एक प्रमोटर सुनील बताते हैं- हम पढ़ने आए थे लेकिन फीस इतनी थी कि जॉइन ही नहीं कर पाए. एक-दो महीना गुजारा हो गया, फिर काम खोजना पड़ा. पहले कोचिंग के लिए पर्चा बांटा करते. बीच में गर्ल्स पीजी में गार्ड की नौकरी मिली. अभी कोचिंग के लिए इंक्वायरी लाते हैं. एक बंदे को ले जाने के पचास रुपये. कुछ पुराने लोग सैलरी पर भी होते हैं.
कितनी सैलरी मिलती है? मैं पक्का कर्मचारी नहीं हूं. टारगेट होता है. दो दिन पहले एक भी पैसा नहीं मिल सका. कल पचास रुपये मिले. आज अब तक एक भी इंक्वायरी नहीं ले जा सका. आप मिलीं तो वीडियो बना रही हैं. सुनील हंसते हुए ही अपनी बात कह जाते हैं. काम करने लगे तो पढ़ाई आपकी छूट गई होगी! नहीं जी. वो क्यों छूटेगी. उसके लिए ही तो इतने खटराग पाले. रात के गार्ड की नौकरी ठीक है. उसमें दिन-रात दोनों वक्त पढ़ना हो जाता था. एक्स्ट्रा कमाई हो सके, इसके लिए यूट्यूब चैनल भी बनाया. गांव से आए लड़का लोग काम करते हुए आईएएस की तैयारी कैसे करें, ये बताते हैं. सब्सक्राइबर भी बढ़ रहे हैं. वॉच टाइम बढ़ा तो पैसे भी आने लगेंगे. यूपी के दूरदराज गांव से आए सुनील किसी प्रोफेशनल की तरह बात करते हुए.घर क्यों नहीं लौट जाते. वहीं सेल्फ स्टडी कीजिएगा. मैं बिनमांगे सलाह दे डालती हूं. कैसे लौटें. चार साल से यहां हैं. लौटेंगे तो ऐसे-ऐसे ताने मिलेंगे कि छेद देंगे. छुट्टी में भी जाओ तो रुक नहीं सकते. प्रेशर है कि पैसे तो कमाने ही हैं, चाहे सपने गंवाएं. सड़क पर कई ‘जेनुइन’ इंक्वायरीज टहलती हुईं. उन्हें पकड़ने के लिए जाते हुए सुनील सादा ढंग से कहते हैं- आप इंक्वायरी तो बनी नहीं, हमारा यूट्यूब चैनल ही सब्सक्राइब कर लीजिएगा.
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