हिंसा और घृणा की तरह षड्यंत्र भी सार्वजनिक अभिव्यक्ति की तरह मान्यता पा चुके हैं
The Wire
जो ख़ुद षड्यंत्र करता है वह यह मानकर चलता है कि जो उसके साथ नहीं या उससे असहमत हैं वह भी षड्यंत्र करता रहता है. जैसे सार्वजनिक जीवन में असहमति को राज्य के विरुद्ध षड्यंत्र माना जाने लगा है वैसे ही निजी स्तर पर भी वह षड्यंत्र में घटाई जा रही है.
लेखकों-कलाकारों को अक्सर असंतुष्ट मानकर, जो वे अक्सर होते भी हैं, यह पूछा जाता है कि वे आखि़र चाहते क्या हैं. सावधान यह उत्तर देते हैं कि साहित्य का कलाओं के लिए अधिक उत्तरदायी परिवेश हो, उनकी सुलभता बढ़े, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बाधित न किया जाए और इन सबके लिए व्यापक सामाजिक समर्थन हो.
असावधान उत्तर यह होगा कि सभी नागरिकों को समान अधिकार मिले, समता की ओर तेज़ क़दम बढ़ाए जाएं, हिंसा और हत्या की राजनीति समाप्त हो, धर्म को लेकर सांप्रदायिकता का विस्तार करने का दुष्ट अभियान बंद हो, अख़बार और चैनल लगातार इतना झूठ, इतनी घृणा न फैलाए, सच पर अटल-अडिग रहने वालों की व्याप्ति हो और भाषा का दैनिक प्रदूषण समाप्त हो.
शायद दोनों यानी सावधान और असावधान उत्तरों को मिलाकर एक समावेशी समग्र उत्तर बनाया जा सकता है.
स्थिति यह है कि साहित्य और कलाओं से ऐसे सवाल कोई नहीं पूछ रहा है. उनमें अगर कोई असंतोष है तो उसे अनदेखा-अनसुना किया जा रहा है. कम से कम सत्ताकामी राजनीति-बाज़ार-मीडिया-धर्म-बाज़ार के चालू प्रभावशाली गठबंधन ने साहित्य और कलाओं को अनुपयोगी और अनुपयोज्य मानकर हाशिये पर ढकेल दिया है.