हिंदी और उर्दू: ज़बान बनाई नहीं जाती, ख़ुद बनती है…
The Wire
हिंदी के हक़ में हिंदू क्यों अपना वक़्त ज़ाया करते हैं. मुसलमान उर्दू के तहफ़्फ़ुज़ के लिए क्यों बेक़रार हैं?
हिंदी और उर्दू का झगड़ा एक ज़माने से जारी है. मौलवी अब्दुल-हक़ साहब, डॉक्टर तारा चंद जी और महात्मा गांधी इस झगड़े को समझते हैं लेकिन मेरी समझ से ये अभी तक बालातर है. कोशिश के बावजूद इसका मतलब मेरे ज़ेहन में नहीं आया. हिंदी के हक़ में हिंदू क्यों अपना वक़्त ज़ाया (बर्बाद) करते हैं. मुसलमान उर्दू के तहफ़्फ़ुज़ (सुरक्षा) के लिए क्यों बेक़रार हैं? – ज़बान बनाई नहीं जाती, ख़ुद बनती है और न इंसानी कोशिशें किसी ज़बान को फ़ना कर सकती हैं.
मैंने इस ताज़ा और गर्मा-गर्म मौज़ू (विषय) पर कुछ लिखना चाहा तो ज़ैल का मुकालिमा (नीचे का संवाद) तैयार हो गया.
मुंशी नारायण प्रसाद:- इक़बाल साहब ये सोडा आप पिएंगे.
मिर्ज़ा मुहम्मद इक़बाल:- जी हां, मैं पियूंगा.
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