'हां, मुझे कैंसर है और मैं जीना चाहता हूं'
BBC
यह 'अंत' और 'उम्मीद' के बीच की हालत है. मैं चाहूँ तो मौत के डर को दहशत में बदलकर अपनी और अपने परिवार वालों की ज़िंदगी ख़राब कर सकता हूँ.
ज़िंदगी और मौत के बीच बस एक तजुर्बे का फ़र्क़ है. ज़िंदगी जीते हुए हम जो तजुर्बा हासिल करते हैं, उसकी व्याख्या कर पाते हैं. क्योंकि, हमारी साँसें चल रही होती हैं.
मौत के तजुर्बे की कहानी अनकही रह जाती है. तब साँसों का वो आधार नहीं बचता. इसलिए, दुनिया के पास मौत का तजुर्बा नहीं है. मौत बस आ जाती है और हम निर्जीव पड़ जाते हैं.
दूसरे लोग हमारी मौत की कहानी सुना तो सकते हैं, लेकिन वे यह नहीं बता सकते कि मौत के बाद क्या होता है. यह तजुर्बा कैसा है.
हाँ, कभी-कभार हमारा समाज ऐसे क़िस्से सुनाता है, जिसमें कहा जाता है कि फ़लाँ आदमी मर गया लेकिन कुछ घंटे बाद उनकी साँसें लौट आयीं.
जब वे दोबारा ज़िंदा हुए तो उनके नाखून में अरवा चावल के दाने और लाल सिंदूर और उड़हुल का फूल था. ऐसी कहानियाँ बिहार के गाँवों में अक्सर सुनने को मिल जाएँगी.