
हबीब तनवीर, जिनका जीवन पूरी तरह से रंगजीवी रहा
The Wire
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: हबीब तनवीर का रंगसत्य लोग थे: लोग, जो साधारण और नामहीन थे, जो अभाव और विपन्नता में रहते थे लेकिन जिनमें अदम्य जिजीविषा, मटमैली पर सच्ची गरिमा और सतत संघर्षशीलता की दीप्ति थी.
बीसवीं शताब्दी में भारतीय आधुनिकता को अधिक देसी, अधिक लोकमय, अधिक वैकल्पिक बनाने की चेष्टा करने वालों में हबीब तनवीर का नाम कुमार गंधर्व, जगदीश स्वामीनाथन और सैयद हैदर रज़ा के साथ आदर और कृतज्ञता के साथ लिया जाता है. 1 सितंबर से हबीब की जन्मशती शुरू हो गई है.
हबीब तनवीर का कमाल यह था कि उन्होंने अपने समय के बहुचर्चित नाटककारों मोहन राकेश, विजय तेंदुलकर, गिरीश कर्नाड, बादल सरकार आदि का एक भी नाटक प्रस्तुत नहीं किया. वे शूद्रक, शेक्सपीयर आदि क्लासिक तक गए, पर उनकी अपनी आधुनिकता का रूपायन जिन नाटकों से निर्णायक और प्रभावशाली ढंग से हुआ वे लोक परंपरा से आए: आगरा बाज़ार, चरणदास चोर, मोर नांव दामाद गांव का नाम ससुरार’.
उनका पहला प्रसिद्ध नाटक ‘आगरा बाज़ार’ तो भारत में प्रस्तुत संभवतः पहला अनाटक है जिसमें कोई कथानक नहीं है, सिर्फ़ आगरा शहर की, वहां के एक कवि नज़ीर अकबराबादी द्वारा लिखी गई कविताओं में उल्लिखित छवियां और प्रसंग हैं. यह वही समय है जब पश्चिम में अनुपन्यास का उदय हो रहा है.
हबीब का रंगमंच मौखिक परंपरा से उत्प्रेरित था: उसमें नाटक खेले जाते थे, प्रस्तुत नहीं किए जाते थे. वह खेलता-कूदता-नाचता-गाता रंगमंच था जो अपनी तरह से प्रश्नवाचक और संदेशवाहक दोनों था. बहुत बार पहले से निर्धारित रूपाकार वाला नहीं, रंग प्रक्रिया से उपजने वाला रंगमंच था.