
साहित्य उम्मीद की विधा है क्योंकि यह यथार्थ, क्रूर वर्तमान का सामना करने का साहस करता है
The Wire
इस समय की प्रचलित टेक्नोलॉजी और प्रविधियां तेज़ी और सफलता से यथार्थ को तरह-तरह से रचती रहती हैं. इस रचे गए यथार्थ का सच्चाई से संबंध अक्सर न सिर्फ़ क्षीण होता है बल्कि ज़्यादातर वे मनगढ़ंत और झूठ को यथार्थ बनाती हैं. हमारे समय में राजनीति, धर्म, मीडिया आदि मिलकर जो मनोवांछित यथार्थ रच रहे हैं उसका सच्चाई से कोई संबंध नहीं होता. इस यथार्थ को प्रतिबिंबित करना झूठ को मानना और फैलाना होगा.
मेरे एक मित्र ने कहा कि मैं साहित्य की जिस उदात्त भूमिका की बात अक्सर करता हूं, वह यथार्थपरक नहीं है: साहित्य से इतनी अधिक उम्मीद इस समय करना यथार्थ से मुंह मोड़ना है और यह कुसमय ऐसा है कि साहित्य से इतने सबकी उम्मीद लगाना अंततः विफलता की ओर जाने जैसा है.
मेरी मुश्किल यह है कि साहित्य में मरते-खपते साठ से अधिक बरस बिताने के बाद मैं उससे ‘कम-से-कम’ की उम्मीद नहीं कर सकता. मुझे पता है कि उदात्त और उदार का संसार भर में ह्रास हो रहा है. उन पर लगातार हमले हो रहे हैं. पर मैं उनकी संभावना को मनुष्यता और साहित्य दोनों के लिए ज़रूरी मानता हूं.
अगर उदात्त और उदार साहित्य में अपना शरण्य नहीं पायेंगे तो उन्हें बसने के लिए और कौन-सी जगह अब बची हैं? अधिक से अधिक साधारण जीवन में, जीवन की साधारणता में, लोगों के आपसी संबंधों में, कुछ उनकी सच्चाइयों में, कुछ उनके सपनों में.
साधारण जीवन और साहित्य का संबंध गहरा है और जीवन साहित्य को प्रभावित करता है, कई बार उसे दिशा भी देता है. साहित्य जीवन को कितना बदल पाता है, अपनी आकांक्षा और प्रयत्न से, यह कहना मुश्किल है. लेकिन जीवन तो निश्चय ही साहित्य को बदलता है.