
सागर सरहदी, जो ताउम्र विभाजन के विषाद और उजड़ जाने का एहसास लिए जीते रहे
The Wire
स्मृति शेष: सागर सरहदी इस एहसास के साथ जीने की कोशिश करते रहे कि दुनिया को बेहतर बनाना है. मगर अपनी बदनसीबी के सोग में इस द्वंद्व से निकल ही नहीं पाए कि साहित्य और फिल्मों के साथ निजी जीवन में भी एक समय के बाद अपनी याददाश्त को झटककर ख़ुद से नया रिश्ता जोड़ना पड़ता है.
‘सब मर गए, सब डूब गए और मैं बच गया…अपनी यादों के भूत लिए…’ ‘मैं अपनी शनाख़्त खो बैठा हूं. एक कॉम्प्लेक्स लिए घूमता हूं कि मैं इंसान नहीं हिंदू हूं…’ ‘मलिक: मैंने कहा. मैं राम का नाम रसूल रख दूंगा तो क्या राम का नाम बदल जाएगा? उसकी शक्ल बदल जाएगी? उन्होंने जवाब दिया ‘उसकी रूह बदल जाएगी.’ ‘जब कोई लड़की मुझसे वास्ता रखना चाहती है तो सबसे पहला ख़याल जो मेरे दिमाग़ में आता है ये होता है कि वो मेरे साथ सोए…’ ‘अगर कहीं मुलाक़ात हो गई तो पहचान लोगी मुझे. ‘आदमी: अगर आप मुझे कहीं, किसी जगह पर दोबारा मिल जाएंगी तो पहचान लेंगीं? ‘जिस तरह से वो ड्रामा पेश किया गया था और जिस फॉर्मेट में डायरेक्ट हुआ था उसका फ्लॉप होना यक़ीनी था…’ ‘उन्होंने (शौहर ने) मुझे ये भी बताया कि मैं शादी का बंधन तोड़ भी सकती हूं और अगर समाज से घबरा जाऊं तो शादी के लिबादे में भी पुराना रिश्ता रख सकती हूं’ ‘एक ही ख़याल कोड़े बरसा रहा था, साहिबां; फिर? ‘हिंदुस्तानी औरत की झिझक उसमें नहीं थी. चाहती तो ख़ुश करने में कोई कसर न उठा रखती थी. सेक्स के बारे में जितना मैंने पढ़ा था, गीता के जिस्म ने सब भुला दिया था.’ सलाम ज़रूर करूंगी.’ (फिल्म: बाज़ार) लड़की: आप भी कमाल की बात करते हैं, हम दोनों हाथ जोड़कर यूं आपको नमस्ते कहेंगे.’ (नाटक: एक बंगला बने न्यारा) ‘तुम मेरे क़रीब आना शुरू कर दो. इसी तरह देखो मुझे. मेरे होंठ शहद ले आएंगे, मेरी आंखें पैमाना छलकाएंगी. आज इसी लम्हे मेरा जिस्म तुम्हारे लिए पिघलेगा. कोई साथ, मलिक: मैंने कहा रूह किसने देखी है? उन्होंने जवाब दिया. ‘हिंदू रूह होती है. मुसलमान रूह होती. जैसे हिंदू पानी होता है मुसलमान पानी होता है…’ ‘औरत बच्चों के बिना कभी मुकम्मल औरत नहीं बन सकती.’ और आज ही नहीं जब भी तुम अपनी तन्हाई का महल खड़ा करोगे, अपने दर्द की ज़बान से उसके गुंबद बनाओगे, अपनी शिकस्त का जादू जगाओगे. मेरे होंठ शहद ले आएंगे, मेरी आंखें पैमाना छलकाएंगी. मेरा जिस्म तुम्हारे लिए पिघलेगा…’ कोई लम्स, ये विभाजन की त्रासदी और विस्थापन का ऐसा कटु अनुभव है जिसके घटनाक्रम, काल और किरदार; हमारी सियासत के हाथों अर्थहीन होकर हर दूसरे दिन इंसानियत को शर्मसार कर रहे हैं. तो क्या दो हज़ार इक्कीस भी सन सैंतालिस के सोग में है? कोई गर्मी होMore Related News