सरदार सरोवर परियोजना में देरी करने वाले असली ‘अर्बन नक्सल’ कौन हैं
The Wire
'विकास' परियोजनाओं के नाम पर जबरन बेदखल किए जाने पर अपने वजूद और प्राकृतिक संसाधनों को बचाए रखने के लिए लड़ने वालों को जब नरेंद्र मोदी 'अर्बन नक्सल' कहते हैं तो वे इनके संघर्षों का अपमान तो करते ही हैं, साथ ही परियोजना में हुई देरी के लिए ज़िम्मेदार सरकारी वजहों को भी नज़रअंदाज़ कर देते हैं.
भारत के प्रधानमंत्री ने 23 सितंबर 2022 को विभिन्न राज्यों के पर्यावरण मंत्रियों की बैठक को संबोधित करते हुए एक बहुत ही गंभीर बयान जारी करते हुए कहा कि ‘सरदार सरोवर बांध के कार्य को ‘अर्बन (शहरी) नक्सलियों’ द्वारा रोका गया था. प्रधानमंत्री किन्हें ‘अर्बन नक्सल’ कहकर बुला रहे हैं और सरदार सरोवर का कार्य क्यों रोका गया, इसे जानने के लिए इस परियोजना का इतिहास जानना बहुत ज़रूरी है. ‘1947-48 में मुंबई राज्य में कई सिंचाई परियोजनाओं के कार्यान्वयन के बारे में विचार चल रहा था… तापी और नर्मदा परियोजनाओं को तब मंजूरी दी गई लेकिन सांख्यिकीय जानकारी उपलब्ध न होने के कारण नर्मदा परियोजना की रूपरेखा तुरंत तैयार नहीं की जा सकी. तब सरदार वल्लभभाई पटेल और हम में से कई लोगों ने यह सोचा कि पहले तापी परियोजना की रूपरेखा बनाकर उसे लागू करना और उसके बाद नर्मदा परियोजना को लेना बेहतर रहेगा. ‘सरदार सरोवर और इंदिरा सागर परियोजनाओं का पर्यावरण और वन मंत्रालय द्वारा पर्यावरण के दृष्टिकोण से मूल्यांकन किया गया और इन्हें वर्ष 1987 में मंजूरी दी गई. इस निष्कर्ष पर पहुंचा गया कि उचित सुरक्षा उपायों को अपनाए जाने पर कोई भी पर्यावरणीय मुद्दा परियोजना के औचित्य को गलत ठहराने जितना गंभीर नहीं है.’ ‘नर्मदा नियंत्रण प्राधिकरण द्वारा 16 जून 2017 को आयोजित की गई अपनी 89वीं आपातकालीन सभा में दूसरे चरण के प्रस्ताव को मंज़ूरी देते हुए बांध के दरवाज़ों को नीचे किए जाने और 138.68 मीटर (ईएल) के पूर्ण जलाशय स्तर तक पानी भरे जाने को स्वीकृति दी गई.’ ‘…सरकार खुद इस बात को मान रही है कि नहरों का निर्माण अब भी अधूरा ही है. सरकार खुद भी यह कह रही है कि वर्ष 2017-18 में वह सिर्फ 3,856 किमी की नहरों का निर्माण कर पाएगी… अगर गुजरात सरकार इस रफ़्तार से काम करने वाली है तो नहरों के निर्माण के पूरे काम को ख़त्म करने में 11 साल और लग जाएंगे!
इस परियोजना को पहली चुनौती 1961 में दी गई, जब भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू गुजरात के नवगाम नाम के गांव की आदिवासी ज़मीनों पर बांध का शिलान्यास करने आए. उस समय का प्रस्तावित बांध बहुत छोटा था और जिस आदिवासी गांव में इसे बनाया जाना था, उसी के नाम पर इसे भी नवगाम बांध का नाम दिया गया. जब इस परियोजना की योजना बनाई जा रही थी, तब मैं मुंबई राज्य का मुख्यमंत्री था. मैंने अहमदाबाद के कई उद्योगपतियों को इस परियोजना को अंतिम स्वरूप देने और इसके लिए ज़रूरी वित्तीय राशि जुटाने के लिए एक ‘निगम’ की स्थापना करने को कह रखा था… लेकिन वित्तीय राशि की कमी के चलते, निर्माण कार्य शुरू नहीं किया जा सका… फिलहाल गुजरात सरकार (इस परियोजना पर) प्रतिवर्ष 9,000 करोड़ रुपये खर्च कर रही है. इस दर पर आने वाले 11 सालों में बजट बढ़कर 99,000 करोड़ तक पहुंच जाएगा! विशेषज्ञों ने कहा था कि जब तक बांध की ऊंचाई बढ़ाई जाती है, तब तक नहरों का निर्माण कार्य पूरा किया जा सकता है. लेकिन सरकार इसमें विफल रही है. इसे ध्यान में रखते हुए क्या गुजरात सरकार को दोषी नहीं ठहराया जाना चाहिए?’
उसी वर्ष, सरदार सरोवर परियोजना के लिए बनाई जाने वाली आवासीय कॉलोनी के लिए छह गांवों- केवड़िया, कोठी, लिमड़ी, नवगाम, गोरा और वाघड़िया- की ज़मीनें अधिगृहीत की गई और इनमें से एक आदिवासी गांव केवड़िया के नाम पर इस कॉलोनी को केवड़िया कॉलोनी कहा जाने लगा. उसके बाद सरकार ने वर्ष 1963-64 में खोसला आयोग का गठन किया… 1965-66 में अपनी अंतिम रिपोर्ट देते हुए इस आयोग ने नवगाम बांध की ऊंचाई को कम से कम 500 फीट या 530 फीट रखने की सिफारिश की …मध्य प्रदेश ने इसका विरोध किया और इसे स्वीकार करने से इनकार कर दिया. इस ऊंचाई के कारण मध्य प्रदेश में 99,000 एकड़ कृषि भूमि पानी में डूबने वाली थी… महाराष्ट्र, जहां नर्मदा सिर्फ 30 मील की दूरी ही तय करती है, उसने भी मध्य प्रदेश का पक्ष लेते हुए बांध से पैदा होने वाली बिजली में ज़्यादा बड़े हिस्से की मांग रखी.
बिना किसी पुनर्वास या उपयुक्त मुआवज़े के हज़ारों आदिवासी परिवारों से उनकी ज़मीनें ले ली गईं. स्वाभाविक है कि इन छह गांवों के आदिवासियों ने इसका विरोध किया और उनमें से कई लोगों को जेल हुई और अदालत में मामला भी दायर किया गया. 1961 में आदिवासियों द्वारा लड़े गए इस संघर्ष के विस्तृत इतिहास को केवड़िया के पांच बार (आदिवासी) सरपंच रहे स्वर्गीय मूलजीभाई तड़वी की ज़ुबानी यहां सुना जा सकता है. मध्य प्रदेश के रोषपूर्ण विरोध के कारण गुजरात में भी परियोजना को लागू करना संभव नहीं था… मध्य प्रदेश द्वारा खड़ी की गई इस रुकावट को दूर करने के लिए… वर्ष 1968-69 में यह मामला प्राधिकरण को सौंप दिया गया. दुर्भाग्यवश, मध्य प्रदेश ने उचित और अनुचित सभी तरह के हथकंडे अपनाते हुए मामले को लटकाए रखा… ‘