संविधान निर्माण के समय सोशलिस्ट पार्टी का सुर अलग क्यों था
The Wire
दिसंबर 1946 में स्वतंत्र भारत के लिए जब एक नया संविधान बनाए जाने की कवायद शुरू हुई और संविधान सभा का गठन किया गया तो कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के नेताओं ने यह कहते हुए इसका बहिष्कार किया कि यह 'एडल्ट फ्रेंचाइज़' यानी बालिग मताधिकार के आधार पर आधारित चुनी हुई सभा नहीं है.
मेरे प्यारे भाई, मेरे प्यारे जयप्रकाश, ‘संविधान की निंदा मुख्य रूप से दो दल- कम्युनिस्ट पार्टी और सोशलिस्ट पार्टी कर रहे हैं. वह संविधान की निंदा क्यों कर रहे हैं? क्या यह वास्तव में एक खराब संविधान है? मैं कहता हूं ऐसा कतई नहीं है. कम्युनिस्ट पार्टी, सर्वहारा वर्ग की तानाशाही के सिद्धांत के आधार पर संविधान चाहती है. वे संविधान की निंदा करते हैं क्योंकि यह संसदीय लोकतंत्र पर आधारित है.
भारत में आजकल भारतीय संविधान के सबसे बड़े पैरोकार और रक्षक वामपंथी और समाजवादी माने जाते हैं, लेकिन भारतीय संविधान के निर्माण को लेकर वामपंथियों और समाजवादियों की भूमिका और रवैया विरोधाभासी रहा है. और जब भी इस ओर उनका ध्यान आकर्षित किया जाता है तो वे बहुत असहज हो उठते हैं. चूंकि आप बहुत व्यस्त हैं इसलिए मैंने आपका समय लेना उचित नहीं समझा. मैं आपको यह सूचित करने के लिए यह पत्र लिख रहा हूं कि सोशलिस्ट पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी ने अब बदली हुई परिस्थितियों में इसके सदस्यों को संविधान सभा में शामिल होने की इजाज़त दे दी है. मुझे तुम्हारा 3 मई का पत्र मिला है. मुझे बहुत खुशी है कि आपने सोशलिस्ट पार्टी के सदस्यों को संविधान सभा में शामिल होने की अनुमति देने का फैसला किया है. आपने जिन लोगों का सुझाव दिया है, हम उनका स्वागत करेंगे और हम उन्हें अंदर लाने का प्रयास करेंगे, लेकिन मैं यह बता सकता हूं कि रिक्तियों को सृजित करना या भरना अब कोई आसान बात नहीं रह गया है. समाजवादी दो चीजें चाहते हैं. पहली कि यदि वे सत्ता में आएं तो संविधान उन्हें सभी निजी संपत्तियों का राष्ट्रीयकरण या सामाजिककरण करने का अधिकार बिना मुआवजे का भुगतान करने की स्वतंत्रता दे. दूसरी बात यह है कि समाजवादी चाहते हैं कि मौलिक अधिकारों का उल्लेख संविधान में पूर्ण और बिना किसी सीमा के होना चाहिए ताकि यदि उनकी पार्टी सत्ता में आने में विफल रहती है तो भी उन्हें राज्य को उखाड़ फेंकने की निरंकुश स्वतंत्रता होनी चाहिए.’
दरअसल इन दोनों विचारधाराओं के मानने वालों ने संविधान निर्माण का बहिष्कार किया था और जब संविधान तैयार हो गया तो वामपंथियों ने तो इसे ‘ग़ुलामी का दस्तावेज़’ तक बताया था. यदि उन्हें ऐसा करने के लिए आमंत्रित किया जाता है तो. यदि सृजित होने वाली रिक्तियों को भरने के लिए हमारे समूह से कुछ सदस्यों को लेने का प्रस्ताव हो, तो मैं निम्नलिखित नामों की सिफारिश करना चाहूंगा: आचार्य नरेंद्र देव, अरुणा आसफ अली, राममनोहर लोहिया, पुरुषोत्तम त्रिकमदास, कमलादेवी, राव पटवर्धन, अशोक मेहता आदि शामिल हैं. अच्युत भारत में नहीं है, लेकिन अगर वह समय पर वापस आता है, तो उसे भी शामिल किया जाना चाहिए. यह काफी हद तक प्रांतीय मामला है. और संविधान सभा में आने के लिए कांग्रेसियों में एक जबरदस्त इच्छा है, खासकर जब यह एक विधानसभा के रूप में कार्य करने जा रही है. यहां से आदेश जारी करना मुश्किल है कि किसे चुना जाए और किसे नहीं. कुछ प्रांतों में यह दूसरों की तुलना में अपेक्षाकृत आसान होगा. जहां तक मैं जानता हूं, बहुत अधिक रिक्तियां होने की संभावना नहीं है, क्योंकि अधिकांश लोग संविधान सभा में बने रहना चाहते हैं.
दिसंबर 1946 में स्वतंत्र भारत के लिए जब एक नया संविधान बनाए जाने की कवायद शुरू हुई और संविधान सभा का गठन किया गया तो कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के नेताओं ने यह कहते हुए प्रस्तावित संविधान सभा का बहिष्कार किया कि यह ‘एडल्ट फ्रेंचाइज़’ यानी बालिग मताधिकार के आधार पर आधारित चुनी हुई सभा नहीं है और उसके शीर्ष नेता जैसे आचार्य नरेंद्र देव, जयप्रकाश नारायण, राममनोहर लोहिया, फरीदुल हक अंसारी, कमलादेवी चट्टोपाध्याय, युसूफ मेहरली, अरुणा आसफ अली और अशोक मेहता वग़ैरह संविधान सभा में शामिल नहीं हुए. मैं चाहता हूं कि मेरा नाम छोड़ दिया जाए. मैं यह विनम्रता से नहीं कह रहा हूं, लेकिन मेरे पास नए कार्यों में शामिल होने का समय नहीं है और न ही मुझमें इस तरह के काम के लिए योग्यता है. मैं इस पत्र को लिखने से हिचकिचा रहा हूं क्योंकि कुछ मांगना मेरे मिज़ाज के खिलाफ है. अगर मुझे किसी और को लिखना होता, तो मुझे यकीन है कि यह पत्र में नहीं लिख पाता. जैसे भी हो मैंने आपके पत्र की एक प्रति राजेंद्र बाबू को भेज दी है.