श्रीकांत वर्मा: तुम जाओ अपने बहिश्त में, मैं जाता हूं अपने जहन्नुम में
The Wire
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: श्रीकांत वर्मा ने कहा था कि ‘कैंसर से मरती हैं हस्तियां/हैजे से बस्तियां/वकील रक्तचाप से/कोई नहीं मरता/अपने पाप से.' क्या हम आज ऐसे ही नीति-शून्य लोकतंत्र में नहीं रह रहे हैं? कवि आपको किसी नरक या पाप से मुक्ति नहीं दिला सकता: वह उसकी शिनाख़्त करने का साहस भर दे सकता है.
लोकरुचि से अपने को दूर करना एक ग़ैर-लोकतांत्रिक और अभिजात कर्म माना जाता है. ऐसा माने जाने का ख़तरा उठाते हुए मैं और मेरा परिवार पिछले लगभग दस वर्षों से टेलीविजन नहीं देखते. एक पुराना, संभवतः बेकार पड़ गया सेट है ज़रूर, पर उसे एक दशक से निष्क्रिय होने के कारण शायद कुछ दिखाने का अपना काम भी याद न रहा होगा.
यह किसी साहस का मामला नहीं है, जैसा कि एक अन्य और व्यापक प्रसंग में एक पोलिश कवि ने कहा था, यह रुचि का मामला है. मेरी रुचि झूठों के लगातार बढ़ते अंबार, परस्पर घृणा के विस्तार, चैनलों द्वारा अथक सत्ता के महिमामंडन, झगड़ालू और लांछनभरी भाषा आदि में नहीं है, सो नहीं देखता हूं.
अधिकांश चैनल और उनके कई ‘प्राइम टाइम’ कार्यक्रम बहुत लोकप्रिय हैं और ज़ाहिर है कि उन्हें करोड़ों लोग बहुत रुचि लेकर देखते हैं. इन्हीं में से कुछ करोड़ लोक आक्रामक-हिंसक-घृणा फैलाऊ हिंदुत्व को अपना समर्थन भी देते हैं. यह सब मुझे पता है, पर मैं इस लोकरुचि अपने को अलग रखता हूं.
उससे कुछ ख़ास नहीं होता. मुझे इतना भर लगता है कि मैं हर शाम झूठ और घृणा से बच जाता हूं और मेरी भाषा मलिन होने से. इतना काफ़ी है और अभी लोकतंत्र में इतना कर पाने की स्वतंत्रता बची है.