शेखर जोशी जीवन की असाधारण निरंतरता के लेखक थे
The Wire
स्मृति शेष: नई कहानी भावों, मूड की कहानी थी. यहां वैयक्तिकता केंद्र में थी. पर शेखर जोशी इस वैयक्तिकता में भी एक ख़ास क़िस्म की सामाजिकता लेकर आते हैं, क्योंकि बक़ौल जोशी, लेखन उनके लिए ‘एक सामाजिक ज़िम्मेदारी से बंधा हुआ कर्म है.’
हिंदी के चर्चित रचनाकार शेखर जोशी की कहानी ‘कोसी का घटवार‘ जब पहले पहल विविध भारती पर सुनाी थी, तो यह समझ नहीं आया कि कैसे प्रेम को, संवेदना को व्यक्त करने के लिए इतने सहज शब्दों का प्रयोग किया जा सकता है, और वह प्रयोग ‘सुनकर’ इतना प्रभावकारी लग सकता है. पर बाद में जब उस कहानी का कई दफ़े पुनर्पाठ किया तो लगा कि छायावादी भावुकता और उसके बाद बच्चन और दिनकर के उत्तेजना और आवेग से भरे प्रेम के बाद प्रेम को ऐसा भी चित्रित किया जा सकता है, जिसमें जीवन झलकता है. ‘आज इस अकेलेपन में कोई होता, जिसे गुसाईं अपनी जिंदगी की किताब पढ़कर सुनाता! शब्द-अक्षर… कितना देखा, कितना सुना और कितना अनुभव किया है उसने…’ ‘खस्स-खस्स की ध्वनि के साथ अत्यंत धीमी गति से ऊपर का पाट चल रहा था’. ‘जिसके आगे-पीछे भाई-बहिन नहीं, माई-बाप नहीं, परदेश में बंदूक की नोक पर जान रखने वाले को छोकरी कैसे दे दें हम?’ लछमा के बाप ने कहा था. ‘पिछले बैसाख में ही वह गांव लौटा, पंद्रह साल बाद, रिजर्व में आने पर काले बालों को लेकर गया था, खिचड़ी बाल लेकर लौटा. लछमा का हठ उसे अकेला बना गया.’ ‘वर्षों से वह सोचता आया है, कभी लछमा से भेंट होगी, तो वह अवश्य कहेगा कि वह गंगनाथ का जागर लगाकर प्रायश्चित जरूर कर ले. देवी-देवताओं की झूठी कसमें खाकर उन्हें नाराज करने से क्या लाभ?’ ‘विस्मय से आंखें फाड़कर वह उसे देखे जा रही थी, जैसे अब भी उसे विश्वास न हो रहा हो कि जो व्यक्ति उसके सम्मुख बैठा है, वह उसका पूर्व-परिचित गुसांई ही है. ‘तुम?’ जाने लछमा क्या कहना चाहती थी, शेष शब्द उसके कंठ में ही रह गए.’ ‘उसने जल्दी-जल्दी अपने निजी आटे के टीन से दो-ढाई सेर के करीब आटा निकालकर लछमा के आटे में मिला दिया और संतोष की एक सांस लेकर वह हाथ झाड़ता हुआ बाहर आकर बांध की ओर देखने लगा.’ ‘पानी तोड़ने वाले खेतिहर से झगड़ा निपटाकर कुछ देर बाद लौटते हुए उसने देखा सामने वाले पहाड़ की पगडंडी पर सिर पर आटा लिए लछमा अपने बच्चे के साथ धीरे-धीरे चली जा रही थी. वह उन्हें पहाड़ी के मोड तक पहुंचने तक टकटकी बांधे देखता रहा.
शेखर जोशी का लिखा प्रेम, रुमानियत का दावा नहीं करता, पर जीवन की वास्तविकताओं की ज़मीन से उपजे होने की गारंटी ज़रूर देता है. घट के अंदर काठ की चिडियां अब भी किट-किट आवाज कर रही थीं, चक्की का पाट खिस्सर-खिस्सर चल रहा था और मथानी की पानी काटने की आवाज आ रही थी, और कहीं कोई स्वर नहीं, सब सुनसान, निस्तब्ध!’
शेखर जोशी के पहाड़ी संस्कारों ने उन्हें कठिन और संघर्षपूर्ण जीवन के लिए जो सम्मान सिखलाया था, संभवतः वह उनकी कहानियों के पात्रों को भी आसान ज़िंदगी देने के पक्ष में नहीं था. यही वजह है कि चाहे वह ‘बदबू’ कहानी में दिन-रात कारख़ाने में अपने हाथ से ही नहीं बल्कि अपनी आत्मा से भी केरोसिन की बदबू महसूसने वाला कामगर हो, या कहानी ‘दाज्यू’ में प्रवासी पहाड़ी मदन, या ‘कोसी का घटवार’ का वह सेवानिवृत गुसांई, हर जगह उनके पात्र जीवन के स्पंदनों से रचे-बसे हैं, संघर्ष करना जानते हैं.
जोशी नई कहानी की पीढ़ी के रचनाकार हैं, मतलब, 1950 से 1960 के दशक की पौध , इसलिए उनकी कहानियों में वह ‘लघुमानव’ बार-बार आता है जो अपनी ज़िंदगी और परिस्थितियों में निहायत ही साधारण होने के बावजूद भी साधारण नहीं है. पर यहां बात उसी कोसी का घटवार की, जो न केवल शेखर जोशी की प्रमुख कहानियों में से एक है, बल्कि हिंदी नई कहानी में भी उल्लेखनीय है.