लता मंगेशकर: मैं अगर बिछड़ भी जाऊं, कभी मेरा ग़म न करना…
The Wire
स्मृति शेष: लता मंगेशकर समय की रेत पर उकेरा गया वो गहरा निशान है जिसे गुज़रती घड़ियों की लहरें और गाढ़ा करती जाती हैं.
जिस आवाज़ ने 1940 से लेकर आज तक देश की हर पीढ़ी के दिल पे एकछत्र राज किया, आज जब सहसा चुप हुई है तो हमारी सांस्कृतिक संवेदनाएं भी मानों मूक हो गईं हैं. हमारी संवेदनाओं में लता मंगेशकर का नाम किसी व्यक्तिवाची संज्ञा का सूचक नहीं रहा, वह स्वयं अपने आप में एक भावना और अनुभूति जैसी अमूर्त कल्पनाओं में बदल गया है.
मूर्त से अमूर्त हो जाने की प्रक्रिया प्रायः हमें महान व्यक्तियों के संदर्भ में देखने को मिलती है परंतु लता मंगेशकर के साथ इस अमूर्तता में आस्था और प्रेम भी इस कदर जुड़ जाता है, जहां पहुंचकर व्यक्ति सिर्फ सम्मान के योग्य नहीं बल्कि श्रद्धा के योग्य हो जाता है. और देखा जाए तो संगीत और वाणी की आराध्य सरस्वती भी तो हमारी गंगा-जमुनी भारतीय संस्कृति में समान रूप से श्रद्धेय है. पर आस्था और आदर की सीमा से परे जाकर मनुष्यता और तार्किकता के स्तर पर उतर कर लता को एक व्यक्ति रूप में विश्लेषित करने की ज़रूरत है, क्योंकि इसी तरह समग्र रूप से किसी भी शख्सियत की समालोचना की जा सकती है.