लता मंगेशकर पर वुसतउल्लाह ख़ान का ब्लॉगः 'अजीब दास्तां है ये'
BBC
सुरों की मलिका लता मंगेशकर एक ज़माने में पाकिस्तान में क्या मायने रखती थीं बता रहे हैं वहां के वरिष्ठ पत्रकार वुसतउल्लाह ख़ान.
सात जुलाई 2021 दिलीप कुमार, 6 फ़रवरी 2022 लता मंगेशकर. कहने को क्या बचा? मगर दोनों जिस फ़ील्ड से वाबस्ता थे वह फ़ील्ड इस उसूल पर ही ज़िंदा है कि 'द शो मस्ट गो ऑन.'
मुझे 60 सालों में ये तो पता ना चल सका कि लता मंगेशकर सरस्वती देवी का अवतार थीं या बुलबुल-ए-मशरिक (पूरब), कि भगवान की आवाज़, कि भारत रत्न, कि दक्षिणी एशिया की उम्म-ए-कुलसुम, कि नूरजहां की दोतरफ़ा प्रशंसक, कि क्या कुछ. क्या कुछ. क्या कुछ...
बस इतना जानता हूं कि जब पूरा जुमला भी अदा नहीं कर पाता था तब लता मंगेशकर सुबह सात बजे रेडियो सिलोन की लहरों पर सवार हो कर मेरे घर के मरफ़ी रेडियोग्राम में उतरती थीं और साढ़े सात बजे रुख़्सत हो जाती थीं. मैं स्कूल की तरफ़ और मेरे पिता दुकान की तरफ़ चल पड़ते.
जब कोई पूछता है कि तुम्हें लता मंगेशकर का कौन सा गीत सबसे ज़्यादा भाता है तो लाजवाब हो जाता था. ये तो ऐसा ही है कि कोई आपसे पूछे कि आप को आईने का कोई कोना पसंद है या दरम्यान (बीच में)?
इस दुनिया में मज़हब, सियासी, समाजी या आर्थिक विभाजन का ख़ात्मा नामुमकिन है. हां मगर संगीत वो चमत्कार है जिस के सामने सब काले-गोरे, अमीर-ग़रीब, अनपढ़ और पढ़े लिखे एक ही सफ़ में ढेर हैं.