
लता मंगेशकर: उर्दू साहित्य में दर्ज उस ‘आवाज़’ की तस्वीर कैसी दिखती है
The Wire
स्मृति शेष: उर्दू साहित्य में लता मंगेशकर सांस्कृतिक विविधता और संदर्भों के बीच कई बार ऐसे नज़र आती हैं जैसे वो सिर्फ़ आवाज़ न हों बल्कि बौद्धिकता का स्तर भी हों.
‘लता मंगेशकर की आवाज़ का जादू आज हर जगह चल रहा है, पर कभी नूरजहां की आवाज़ फ़िज़ा में बुलंद हो तो कान उससे बे-एतिनाई नहीं बरत सकते…’ ‘वो 6 सितंबर थी, जब लता मंगेशकर ने हमसे बेवफ़ाई की और हमने इस काफ़िर से किनारा किया.’ ‘ऐ लता मंगेशकर के देश मैं तुझे प्रणाम करता हूं. मेरा सलाम क़ुबूल कर.’ ‘इससे क्या फ़र्क़ पड़ता है. वो तो मेरे दिल में रहती है. ज़िंदगी में जितना सुख जितनी ख़ुशी मुझे लता ने दी है. किसी और फ़र्द-ए-वाहिद ने नहीं दी. जवानी में उसने मुझे दिल की धड़कनें दीं, बुढ़ापे में दिल का सुकून दिया. ज़ालिमों ने उसे मंदिर से निकालकर फैशन परेड में बिठा दिया.’ ‘हबीब जालिब ने तारीकी को डराया है-वो लता मंगेशकर का गीत इसलिए पसंद करता है कि वो अपाहिज गदागरों का मिला-जुला कोरस नहीं सुनना चाहता. अगर उसे ये सब कुछ भी सुनना पड़ेगा तो फिर वो ये भी कहने का हक़ रखता है कि मैं अभी तारीकियों के सफ़र से वापिस नहीं लौटा. अलबत्ता वो यक़ीन दिलाता है कि मैं ज़रूर आऊंगा.’ नंबर बासठ, जी साहब, लता मंगेशकर का नाम सुना है तुमने? जी सर, ये गाना सुना है; आएगा आने वाला- जी साहब. हमें वो लोग याद आने लगे जो पाकिस्तान में हमारी राह देख रहे थे, उस लम्हे हम क़ैदी न रहे. हमारा अपना कोई ग़म न रहा…. ‘…लता मंगेशकर की शहद सी आवाज़ का जादू यकायक तोड़ कर तेज़ाब की बदली से ‘ये आफ़त-ए-होश-ओ-ईमां आवाज़ तो दर-दर और घर-घर पहुंची हुई है. कौन सा ख़ित्ता है जहां ये शराब न बरसती हो. इन नग़्मों की ज़बान कोई समझे या न समझे मगर ये गीत गुनगुनाने वाले वहां भी मिल जाते हैं जहां उर्दू अभी तक नहीं पहुंची…’ ‘मैंने उर्दू के सबसे बड़े मुबल्लिग़ मौलाना अब्दुल हक़ के नाम जो ख़त लिखा है उसमें निहायत संजीदगी के साथ अर्ज़ किया है कि भारत की सबसे बड़ी मौलाना अब्दुल हक़ लता मंगेशकर है, जिसके गाने उस हिंदुस्तान के गोशे-गोशे में रचे हुए हैं जो उर्दू से अपना दामन बचाने का दावादार है, मगर उर्दू है कि लता के गानों की शक्ल में अपने गुण गवा रही है.’ ‘एक मोअत्तर गिलौरी मुंह में हो और कानों में आपकी आवाज़ का रस उंडल रहा हो तो इस दो-आतिशा का कैफ़ मुझको वाक़ई गुम कर देता है और मैं चाहता हूं कि कोई मुझको न ढूंढे.’ ‘लफ़्ज़ मंगेशकर को ज़बान से अदा करते वक़्त हलक़, ज़बान और दांतों को तीन मुश्किल स्टेजों से गुज़रना पड़ता है. बिल्कुल रुसी नावेलों के किरदारों की तरह कि वो आसानी से ज़बान की गिरफ़्त में आते ही नहीं. लेकिन जब लता मंगेशकर की मुतरन्निम, रसीली और बताशे की तरह घुलती हुई आवाज़ ने हिंदुस्तानियों के आसाब में जादू जगाना शुरू कर दिया और पान फ़रोश से लेकर कॉलेज के लेक्चरार से होते हुए मेम्बरान-ए-पार्लियामेंट तक लता की आवाज़ पर झूमने लगे तो लता मंगेशकर के नाम में कोई अड़चन और दिक्क़त न रही. उसके नाम और आवाज़ में पहाड़ी झरने की सी रवानी महसूस होने लगी.’ ‘करोड़ों बरस पुरानी दुनिया में 20 वीं और 21 वीं सदी के बीच ये जो अस्सी बरस उन्हें (मुजतबा साहब) मिले थे, उनसे वो बिल्कुल मायूस नहीं थे. कभी-कभी मौज में होते तो अपना मुक़ाबला दुनिया की बड़ी-बड़ी हस्तियों से करके उन हस्तियों को आन की आन में चित कर देते थे. अपने आपको सिकंदर-ए-आज़म से बड़ा इसलिए समझते थे कि सिकंदर-ए-आज़म ने लता मंगेशकर का गाना नहीं सुना था…’
शायद आने वाली सदियों के कानों में भी रस घोले… ज़रा सीटी बजाओ इस धुन पर-लेकिन जब मैं कहूं फ़ौरन बंद कर देना. यस सर. इस गीत ने हमारा अपना ग़म, ज़िल्लतें, रुस्वाइयां, भूक, तंगदस्ती, ज़ुल्म, बेग़ैरती, बेइज्ज़ती को अपने में समो लिया. और उस पर उन लोगों का ग़म ग़ालिब आ गया जो हमारे लिए तरस रहे थे-जो हमारी राह देख रहे थे. बिजली बनके गिरती है, लहू में जज़्ब होकर चश्म-ओ-लब पर अश्क-ओ-खून-ओ-नारा-ए-शब-गीर बनकर थरथरती है…
और अंतहीन युगों की स्मृतियों में हमारी सदी को पुकारे… अब्दुल करीम दुश्मन के सिपाही को ख़ुश करने के लिए काफ़ी देर तक सीटी बजाता रहा. आएगा आने वाला, आएगा-आएगा-आएगा…
उस सदी को जिसमें लता मंगेशकर थीं और हम थे…