
राहुल के 'ट्रंप कार्ड' की काट... हरियाणा का प्रयोग महाराष्ट्र-झारखंड से बिहार-यूपी तक ऐसे आएगा BJP के काम
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हरियाणा चुनाव के बाद महाराष्ट्र-झारखंड जैसे राज्यों में चुनाव होने हैं. हरियाणा का गणित बीजेपी के लिए इन दो चुनावी राज्यों से लेकर बिहार और यूपी तक काम आ सकता है?
लोकसभा चुनाव नतीजों को कांग्रेस समेत विपक्षी दलों के नेता मोरल विक्ट्री बता रहे थे. अग्निवीर योजना के विरोध से लेकर किसानों की नाराजगी के चर्चे थे, जातिगत जनगणना के दांव से अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के बीच भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) की जमीन खिसकाने की विपक्षी उम्मीदों को भी पर लग गए थे. इन उम्मीदों के लोक में विपक्ष अभी छह महीने भी नहीं रह पाया था कि हरियाणा के विधानसभा चुनाव नतीजों ने उन्हें यथार्थ के धरातल पर ला पटका है. हरियाणा चुनाव नतीजों के बाद अब ये चर्चा भी शुरू हो गई है कि ये जातीय राजनीति के मकड़जाल में उलझी यूपी और बिहार के साथ ही चुनावी राज्यों झारखंड और महाराष्ट्र में बीजेपी के लिए कितने काम का हो सकता है?
हरियाणा के नतीजे इस बात का संकेत माने जा रहे हैं कि ओबीसी पॉलिटिक्स की पिच कम से कम राज्यों के चुनाव में उसके लिए अब भी उतनी ही प्रभावी है. उपचुनाव वाले राज्यों के साथ ही चुनावी राज्यों के लिहाज से भी बीजेपी के लिए यह राहतभरा है. यूपी में समाजवादी पार्टी (सपा), कांग्रेस जैसी विपक्षी पार्टियों से लेकर अपना दल (एस), सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (सुभासपा) जैसी एनडीए में शामिल पार्टियां भी जातीय जनगणना की मांग को लेकर मुखर रही हैं. सूबे की 10 विधानसभा सीटों पर उपचुनाव होने हैं जिनमें लोकसभा चुनाव के इस विनिंग फॉर्मूले का टेस्ट होना है.
यूपी की जिन सीटों पर उपचुनाव होने हैं, उनमें अयोध्या सांसद अवधेश प्रसाद के इस्तीफे से रिक्त हुई मिल्कीपुर विधानसभा सीट भी भी शामिल है जिसे बीजेपी लोकसभा चुनाव की हार का बदला लेने के मौके की तरह देख रही है. सपा की रणनीति अखिलेश यादव के पीडीए (पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक) फॉर्मूले को आगे बढ़ाने की है. हरियाणा नतीजों से उत्साहित बीजेपी का फोकस मेजॉरिटी पॉलिटिक्स पर होगा.
लोकसभा चुनाव में सपा से भी कम सीटें जीत पाई बीजेपी की रणनीति ये होगी कि जिस तरह से जाट बाहुल्य राज्य में नॉन जाट पॉलिटिक्स, ओबीसी पॉलिटिक्स के जरिये लगातार तीसरी बार कमल खिलाने में सफलता मिली. उसी तरह यूपी उपचुनाव में गैर यादव ओबीसी, गैर जाटव दलित, राजपूत के साथ ही ब्राह्मण और वैश्य जैसे परंपरागत वोटर्स को जोड़े रखकर विनिंग ट्रैक पर लौटा जाए.
झारखंड की बात करें तो हेमंत सोरेन की पार्टी झारखंड मुक्ति मोर्चा (जेएमएम) की सियासत का आधार आदिवासी पॉलिटिक्स ही है. बीजेपी लोकसभा चुनाव के पहले से ही आदिवासी बेल्ट की बदलती डेमोग्राफी, बांग्लादेशी घुसपैठियों की बढ़ती आबादी के साथ ही आदिवासी अस्मिता की पिच पर आक्रामक बैटिंग कर रही है. ये सारे विषय हों या सीता सोरेन से लेकर चंपाई सोरेन तक को पार्टी में शामिल कराना, बीजेपी की आदिवासी पॉलिटिक्स में सक्रियता फुल फोकस का संकेत है या रणनीति कुछ और है?
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