
राष्ट्रीय ओवरसीज़ छात्रवृत्ति: वंचित तबके के छात्रों को विदेश में क्यों नहीं पढ़ने देना चाहती सरकार
The Wire
केंद्र सरकार द्वारा अनुसूचित जाति/ जनजाति और भूमिहीन कृषि श्रमिक परिवारों से आने वाले छात्रों को विदेश में पढ़ने के लिए दी जाने वाली राष्ट्रीय ओवरसीज़ छात्रवृत्ति योजना में बिना किसी से सलाह-मशविरे और उससे लाभांवित तबकों की राय जाने बिना किए गए विषय संबंधी बदलाव बहुसंख्यकवादी असुरक्षा का नतीजा हैं.
उत्पीड़ितों, वंचितों के शिक्षा से जुड़ी एक अत्यंत महत्वाकांक्षी योजना, जिसकी शुरुआत 1954 में हुई थी- अलग वजहों से सुर्खियों में है.
मालूम हो भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के जमाने में जब शिक्षा का महकमा अग्रणी स्वतंत्रता सेनानी मौलाना अबुल कलम आज़ाद के जिम्मे था, इस योजना की नींव डाली गई थी. समाज के सबसे उत्पीड़ित, वंचित और शोषित तबकों से आने वाले मेधावी छात्रों के लिए भी विदेश में उच्च शिक्षा हासिल करने के लिए यह एक अलग तरह की योजना थी, जिसके तहत इनकी समूची पढ़ाई को सरकारी सहायता देने का खाका बना था.
बीते दिनों सामाजिक न्याय और सशक्तिकरण के केंद्रीय मंत्रालय, जो प्रस्तुत योजना ‘नेशनल ओवरसीज स्कॉलरशिप योजना का प्रबंधन करता है, ने ऐलान कर दिया है कि आईंदा वह इस योजना के तहत ऐसे मेधावी छात्रों के विदेशों में जाकर अध्ययन को समर्थन नहीं देगा जो भारतीय इतिहास और संस्कृति पर अध्ययन करना चाहते हैं.
जाहिर-सी बात है बिना किसी से सलाह मशविरा के, उससे लाभांवित तबकों की राय जान कर आनन-फानन में लिए गए इस निर्णय ने एक तरह से इस बेहतरीन योजना के पीछे की चिंताओं और सरोकारों पर ही कुठाराघात किया है, जिसके तहत एक नवस्वाधीन मुल्क पचास के दशक के पूर्वार्द्ध में व्यापक आबादी के निरक्षर होने की चुनौती से जूझने के संकल्प को जमीनी धरातल पर उतार रहा था, मौलाना अबुल कलम आज़ाद के नेतृत्व और मार्गदर्शन में शिक्षा की नीति बन रही थी, नए-नए शिक्षा संस्थानों की नींव डाली जा रही थी.