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रामचरितमानस: जब हनुमान, सुग्रीव और विभीषण को प्रभु राम ने समझाया चंद्रमा के काले धब्बों का रहस्य
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Ramcharit manas: जब भगवान राम ने हनुमान, सुग्रीव और विभीषण को समझाया था चंद्रमा के काले धब्बों का रहस्य
रावण के दूत लंका में आए और उन्होंने रावण के चरणों में सिर नवाए. दशमुख रावण ने हंसकर बात पूछी- अरे शुक! अपनी कुशल क्यों नहीं कहता? फिर उस विभीषण का समाचार सुना, मृत्यु जिसके अत्यंत निकट आ गई है. मूर्ख ने राज्य करते हुए लंका को त्याग दिया. अभागा अब जौ का कीड़ा (घुन) बनेगा (जौ के साथ जैसे घुन भी पिस जाता है, वैसे ही नर वानरों के साथ वह भी मारा जाएगा), फिर भालु और वानरों की सेना का हाल कह, जो कठिन काल की प्रेरणा से यहां चली आई है. और जिनके जीवन का रक्षक कोमल चित्त वाला बेचारा समुद्र बन गया है (अर्थात्) उनके और राक्षसों के बीच में यदि समुद्र न होता तो अब तक राक्षस उन्हें मारकर खा गए होते. फिर उन तपस्वियों की बात बता, जिनके हृदय में मेरा बड़ा डर है. उनसे तेरी भेंट हुई या वे कानों से मेरा सुयश सुनकर ही लौट गए? शत्रु सेना का तेज और बल बताता क्यों नहीं? तेरा चित्त बहुत ही चकित (भौंचक्का सा) हो रहा है. दूत ने कहा-) हे नाथ! आपने जैसे कृपा करके पूछा है, वैसे ही क्रोध छोड़कर मेरा कहना मानिए. जब आपका छोटा भाई श्री रामजी से जाकर मिला, तब उसके पहुंचते ही श्री रामजी ने उसको राजतिलक कर दिया. हम रावण के दूत हैं, यह कानों से सुनकर वानरों ने हमें बांधकर बहुत कष्ट दिए, यहां तक कि वे हमारे नाक-कान काटने लगे. श्री रामजी की शपथ दिलाने पर कहीं उन्होंने हमको छोड़ा. हे नाथ! आपने श्री रामजी की सेना पूछी, सो वह तो सौ करोड़ मुखों से भी वर्णन नहीं की जा सकती. अनेकों रंगों के भालु और वानरों की सेना है, जो भयंकर मुख वाले, विशाल शरीर वाले और भयानक हैं.
जिसने नगर को जलाया और आपके पुत्र अक्षय कुमार को मारा, उसका बल तो सब वानरों में थोड़ा है. असंख्य नामों वाले बड़े ही कठोर और भयंकर योद्धा हैं. उनमें असंख्य हाथियों का बल है और वे बड़े ही विशाल हैं. द्विविद, मयंद, नील, नल, अंगद, गद, विकटास्य, दधिमुख, केसरी, निशठ, शठ और जाम्बवान ये सभी बल की राशि हैं. ये सब वानर बल में सुग्रीव के समान हैं और इनके जैसे (एक-दो नहीं) करोड़ों हैं, उन बहुत सो को गिन ही कौन सकता है. श्री रामजी की कृपा से उनमें अतुलनीय बल है. वे तीनों लोकों को तृण के समान (तुच्छ) समझते हैं. हे दशग्रीव! मैंने कानों से ऐसा सुना है कि अठारह पद्म तो अकेले वानरों के सेनापति हैं. हे नाथ! उस सेना में ऐसा कोई वानर नहीं है, जो आपको रण में न जीत सके. सब के सब अत्यंत क्रोध से हाथ मीजते हैं. पर श्री रघुनाथजी उन्हें आज्ञा नहीं देते. हम मछलियों और सांपों सहित समुद्र को सोख लेंगे. नहीं तो बड़े-बड़े पर्वतों से उसे भरकर पूर (पाट) देंगे. और रावण को मसलकर धूल में मिला देंगे. सब वानर ऐसे ही वचन कह रहे हैं. सब सहज ही निडर हैं, इस प्रकार गरजते और डपटते हैं मानो लंका को निगल ही जाना चाहते हैं. सब वानर-भालू सहज ही शूरवीर हैं फिर उनके सिर पर प्रभु (सर्वेश्वर) श्री रामजी हैं. हे रावण! वे संग्राम में करोड़ों कालों को जीत सकते हैं.
श्री रामचंद्रजी के तेज (सामर्थ्य), बल और बुद्धि की अधिकता को लाखों शेष भी नहीं गा सकते. वे एक ही बाण से सैकड़ों समुद्रों को सोख सकते हैं, परंतु नीति निपुण श्री रामजी ने आपके भाई से उपाय पूछा. उनके (आपके भाई के) वचन सुनकर वे (श्री रामजी) समुद्र से राह मांग रहे हैं, उनके मन में कृपा भी है. दूत के ये वचन सुनते ही रावण खूब हंसा और बोला- जब ऐसी बुद्धि है, तभी तो वानरों को सहायक बनाया है! स्वाभाविक ही डरपोक विभीषण के वचन को प्रमाण करके उन्होंने समुद्र से मचलना (बालहठ) ठाना है. अरे मूर्ख! झूठी बड़ाई क्या करता है? बस, मैंने शत्रु (राम) के बल और बुद्धि की थाह पा ली. जिसके विभीषण जैसा डरपोक मन्त्री हो, उसे जगत में विजय और विभूति (ऐश्वर्य) कहां! दुष्ट रावण के वचन सुनकर दूत को क्रोध बढ़ आया. उसने मौका समझकर पत्रिका निकाली. और कहा- श्री रामजी के छोटे भाई लक्ष्मण ने यह पत्रिका दी है. हे नाथ! इसे बचवाकर छाती ठंडी कीजिए. रावण ने हंसकर उसे बाएं हाथ से लिया और मंत्री को बुलवाकर वह मूर्ख उसे बंचाने लगा. पत्रिका में लिखा था- अरे मूर्ख! केवल बातों से ही मन को रिझाकर अपने कुल को नष्ट-भ्रष्ट न कर. श्री रामजी से विरोध करके तू विष्णु, ब्रह्मा और महेश की शरण जाने पर भी नहीं बचेगा या तो अभिमान छोड़कर अपने छोटे भाई विभीषण की भांति प्रभु के चरण कमलों का भ्रमर बन जा. अथवा रे दुष्ट! श्री रामजी के बाण रूपी अग्नि में परिवार सहित पतिंगा हो जा.
पत्रिका सुनते ही रावण मन में भयभीत हो गया, परंतु मुख से (ऊपर से) मुस्कुराता हुआ वह सबको सुनाकर कहने लगा- जैसे कोई पृथ्वी पर पड़ा हुआ हाथ से आकाश को पकड़ने की चेष्टा करता हो, वैसे ही यह छोटा तपस्वी लक्ष्मण वाग्विलास करता है (डींग हांकता है). शुक (दूत) ने कहा- हे नाथ! अभिमानी स्वभाव को छोड़कर इस पत्र में लिखी सब बातों को सत्य समझिए. क्रोध छोड़कर मेरा वचन सुनिए. हे नाथ! श्री रामजी से वैर त्याग दीजिए. यद्यपि श्री रघुवीर समस्त लोकों के स्वामी हैं, पर उनका स्वभाव अत्यंत ही कोमल है. मिलते ही प्रभु आप पर कृपा करेंगे और आपका एक भी अपराध वे हृदय में नहीं रखेंगे. जानकीजी श्री रघुनाथजी को दे दीजिए. हे प्रभु! इतना कहना मेरा कीजिए. जब उस (दूत) ने जानकीजी को देने के लिए कहा, तब दुष्ट रावण ने उसको लात मारी. वह भी (विभीषण की भांति) चरणों में सिर नवाकर वहीं चला, जहां कृपासागर श्री रघुनाथजी थे. प्रणाम करके उसने अपनी कथा सुनाई और श्री रामजी की कृपा से अपनी गति (मुनि का स्वरूप) पाई. शिवजी कहते हैं- वह ज्ञानी मुनि था, अगस्त्य ऋषि के शाप से राक्षस हो गया था. बार-बार श्री रामजी के चरणों की वंदना करके वह मुनि अपने आश्रम को चला गया. इधर तीन दिन बीत गए, किंतु जड़ समुद्र विनय नहीं मानता. तब श्री रामजी क्रोध सहित बोले- बिना भय के प्रीति नहीं होती!
हे लक्ष्मण! धनुष-बाण लाओ, मैं अग्निबाण से समुद्र को सोख डालूं. मूर्ख से विनय, कुटिल के साथ प्रीति, स्वाभाविक ही कंजूस से सुंदर नीति (उदारता का उपदेश), ममता में फंसे हुए मनुष्य से ज्ञान की कथा, अत्यंत लोभी से वैराग्य का वर्णन, क्रोधी से शम (शांति) की बात और कामी से भगवान की कथा, इनका वैसा ही फल होता है जैसा ऊसर में बीज बोने से होता है (अर्थात् ऊसर में बीज बोने की भांति यह सब व्यर्थ जाता है). ऐसा कहकर श्री रघुनाथजी ने धनुष चढ़ाया. यह मत लक्ष्मणजी के मन को बहुत अच्छा लगा. प्रभु ने भयानक (अग्नि) बाण संधान किया, जिससे समुद्र के हृदय के अंदर अग्नि की ज्वाला उठी. मगर, सांप तथा मछलियों के समूह व्याकुल हो गए. जब समुद्र ने जीवों को जलते जाना, तब सोने के थाल में अनेक मणियों (रत्नों) को भरकर अभिमान छोड़कर वह ब्राह्मण के रूप में आया. समुद्र ने भयभीत होकर प्रभु के चरण पकड़कर कहा- हे नाथ! मेरे सब अवगुण (दोष) क्षमा कीजिए. हे नाथ! आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी- इन सबकी करनी स्वभाव से ही जड़ है. आपकी प्रेरणा से माया ने इन्हें सृष्टि के लिए उत्पन्न किया है, सब ग्रंथों ने यही गाया है. जिसके लिए स्वामी की जैसी आज्ञा है, वह उसी प्रकार से रहने में सुख पाता है. श्री रामजी का भारी बल और पौरुष देखकर समुद्र हर्षित होकर सुखी हो गया.
प्रभु ने अच्छा किया जो मुझे शिक्षा (दंड) दी, किंतु मर्यादा (जीवों का स्वभाव) भी आपकी ही बनाई हुई है. ढोल, गंवार, शूद्र, पशु और स्त्री- ये सब शिक्षा के अधिकारी हैं. प्रभु के प्रताप से मैं सूख जाऊंगा और सेना पार उतर जाएगी, इसमें मेरी बड़ाई नहीं है (मेरी मर्यादा नहीं रहेगी). तथापि प्रभु की आज्ञा अपेल है (अर्थात् आपकी आज्ञा का उल्लंघन नहीं हो सकता) ऐसा वेद गाते हैं. अब आपको जो अच्छा लगे, मैं तुरंत वही करूं. समुद्र के अत्यंत विनीत वचन सुनकर कृपालु श्री रामजी ने मुस्कुराकर कहा- हे तात! जिस प्रकार वानरों की सेना पार उतर जाए, वह उपाय बताओ. समुद्र ने कहा- हे नाथ! नील और नल दो वानर भाई हैं. उन्होंने लड़कपन में ऋषि से आशीर्वाद पाया था. उनके स्पर्श कर लेने से ही भारी-भारी पहाड़ भी आपके प्रताप से समुद्र पर तैर जाएंगे. मैं भी प्रभु की प्रभुता को हृदय में धारण कर अपने बल के अनुसार सहायता करूंगा. हे नाथ! इस प्रकार समुद्र को बंधाइए, जिससे तीनों लोकों में आपका सुंदर यश गाया जाए. इस बाण से मेरे उत्तर तट पर रहने वाले पाप के राशि दुष्ट मनुष्यों का वध कीजिए. कृपालु और रणधीर श्री रामजी ने समुद्र के मन की पीड़ा सुनकर उसे तुरंत ही हर लिया. उसने उन दुष्टों का सारा चरित्र प्रभु को कह सुनाया. फिर चरणों की वंदना करके समुद्र चला गया.
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