रशीद जहां: उर्दू अदब की बाग़ी आवाज़…
The Wire
जन्मदिन विशेष: 20वीं सदी में भारतीय नारीवाद के शैशवकाल में रशीद जहां न केवल स्त्रियों के विषय में विचार कर सकने वाली उभरती आवाज़ बनीं, बल्कि आने वाले समय के नारीवादी साहित्य के लिए उन्होंने ब्लूप्रिंट तैयार किया. उनका जीवन संक्षिप्त था, रचनाएं कम हैं, पर उनका प्रभाव युगांतरकारी है.
1932 में प्रकाशित ‘अंगारे’ में चार युवा लेखकों ने अपनी रचनाओं में छुपे विद्रोही तेवर से एक तरह से उर्दू अदब की दुनिया में भूचाल ला दिया. वजह यह कि इस छोटे से संकलन की दस कहानियां, अपने समय और समाज के तथाकथित मूल्यों और ढकोसलों पर एक ऐसा प्रहार थीं, जिसने धार्मिक रक्षकों को ही नहीं बल्कि अवाम को भी हतप्रभ कर दिया. अंगारे ने धर्म और समाज दोनों पर निशाना साधते हुए एक तरह से साहित्य को विद्रोह और प्रश्न का दूसरा नाम बना दिया, इतना ही कि इस संकलन के रचनाकारों के खिलाफ फ़तवे जारी कर दिए गए और अंततः संयुक्त प्रांत की सरकार ने इसपर आजीवन प्रतिबंध लगवा दिया. यही ‘अंगारे’ संकलन सही अर्थों में प्रगतिशील लेखन आंदोलन के बीज के रूप में माना जाता है. हालांकि इन चार युवा लेखकों को सर्वत्र विरोध और बहिष्कार का शिकार होना पड़ा, पर जिस व्यक्ति पर सबसे ज़्यादा गाज़ गिरी वो थीं, रशीद जहां. वही रशीद जहां (25 अगस्त 1905-29 जुलाई 1952) जिनकी क़ब्र पर लिखा गया था: ‘कम्युनिस्ट, डॉक्टर और लेखिका.’ अंगारे में रशीद जहां की एक लघुकथा (दिल्ली की सैर) और एक एकांकी (पर्दे के पीछे) शामिल किए गए थे. संकलन में सज्जाद ज़हीर, अहमद अली, मह्म्मुदूज़्ज़फर ने भी अपनी रचनाएं दी थीं, पर चूंकि रशीद एक स्त्री थीं, उनकी हिम्मत तत्कालीन समाज के लिए और भी अधिक असहनीय थी और रशीद को ‘अंगारेवाली’ के उपनाम से ही जाना जाने लगा.More Related News