
रघुवीर सहाय: स्वाधीन इस देश में चौंकते हैं लोग एक स्वाधीन व्यक्ति से…
The Wire
जन्मदिन विशेष: रघुवीर सहाय ने संसदीय जनतंत्र में आदमी के बने रहने की चुनौतियों को शायद किसी भी दूसरे कवि से बेहतर समझा था. सत्ता और व्यक्ति के बीच के रिश्ते में ख़ुद आदमी का क्षरित होते जाना. हम कैसे लोग हैं, किस तरह का समाज?
रघुवीर सहाय की याद रह-रहकर आती ही रहती है, यह आज उनके जन्मदिन पर दिन चढ़ जाने के समय ध्यान आया. मौके-बेमौके. जैसे-जैसे इस संवैधानिक जनतंत्र की ज़िंदगी का वर्णन करने में भाषा पसीने-पसीने या लहूलुहान होने लगती है, हम रघुवीर सहाय जैसे लेखकों के पन्ने पलटने लगते हैं.
एक ऐसी भाषा की तलाश में जिसमें जो कहा जाए उसका अर्थ एक ही हो. ख़बर ख़बर हो, अफ़वाह नहीं. वह दी जाए , गढ़ी न जाए.
रघुवीर सहाय अपने व्यक्त में अपने वक्त की ही कविता लिख रहे थे लेकिन शायर की पैगंबरी निगाह के चलते ही वे शायद इन न देखे हुए आज की, जिसमें हम अभी हैं, चेतावनी भी दे रहे थे. क्या कहना है, क्या याद रखना है, यानी कवि का ही नहीं हम सबका मानवीय कर्तव्य क्या है, यह ‘सच क्या है’ में बतलाया है,
‘सच क्या है?बीते समय का सच क्या है?क्रूरता, जो कुचल कर उस दिन की गईवही सच है उसे याद रख, लिख अरे लेखकदस बरस बाद बचे लोग समझते होंगेयुग नया आ गयातब हुकूम होगा कि दस बरस पहले का वह दमनवास्तविक यथार्थ में क्यों हुआ था, समझ!क्यों बच्चे का गला घोंटा गया था,यह उसकी घुटन से अधिक अर्थवान है!वह बता!’