
यशपाल: ‘मैं जीने की कामना से, जी सकने के प्रयत्न के लिए लिखता हूं…’
The Wire
विशेष: यशपाल के लिए साहित्यिकता अपने विचारों को एक बड़े जन-समुदाय तक पहुंचाने का माध्यम थी. पर इस साहित्यिकता का निर्माण विद्रोह और क्रांति की जिस चेतना से हुआ था, वह यशपाल के समस्त लेखन का केंद्रीय भाव रही. यह उनकी क्रांतिकारी चेतना ही थी जो हर यथास्थितिवाद पर प्रश्न खड़ा करती थी.
पंजाब के फ़िरोज़पुर में 3 दिसंबर 1903 को जन्मे यशपाल की पहचान के कई सूत्र हैं. क्रांतिकारी, समाजवादी-मार्क्सवादी विचारक, लेखक, यह सब सूत्र यशपाल से जुड़ते हैं. अगर वह स्वतंत्रता आंदोलन में भगत सिंह, आज़ाद जैसे क्रांतिकारियों के साथ कंधे-से-कंधा मिला कर चलने वाले सहयोगी थे तो वहीं पचास से भी अधिक किताबें-कहानियों,उपन्यासों, निबंधों, आत्मकथा के रूप में लिखने वाले, प्रेमचंद के बाद संभवतः हिंदी के सबसे अधिक नैसर्गिक और गंभीर रचनाकार भी थे. ‘अपनी चेतना और विश्वास में सदा सप्रयोजन ही लिखता रहा हूं… … मैं जीने की कामना से, जी सकने के प्रयत्न के लिए लिखता हूं. अपनी अभिव्यक्ति अथवा रचना-प्रवृत्ति को मैं अपने समाज की परिस्थितियों, अनुभूतियों और कामनाओं की सचेत प्रतिक्रिया ही समझता हूं और उन्हें अपनी चेतना और सामर्थ्य के अनुसार अपने सामाजिक हित के प्रयोजन से अभिव्यक्त करता रहता हूं.’
19वीं शताब्दी के अंत में पंजाब में आर्य समाज आंदोलन की पृष्ठभूमि में यशपाल की वैचारिकता के आविर्भाव को समझा जा सकता है. मां के आर्यसमाजी होने के कारण घर का पूरा संस्कार ही एक ऐसे विचार से निर्मित था जहां वैदिक मूल्यों और शिक्षा पर ज़ोर स्वाभाविक था.
यशपाल की प्रारंभिक शिक्षा भी हरिद्वार में एक आर्य समाजी विद्यालय में ही हुई, जहां गुरुकुल परंपरा पर आधारित शिक्षा से यशपाल की जीवन-जगत संबंधी आधारभूत मूल्यों के बीज पड़े. अपनी आत्मकथा ‘सिंहावलोकन’ में यशपाल अपने विचारों के निर्माण में अपनी मां की भूमिका स्वीकार करते हैं, जो बच्चों की शिक्षा के लिए प्रतिबद्ध थीं.
महज़ सात वर्ष की अल्पायु में घर छोड़कर गुरुकुल चले जाने की पूरी स्थिति से ही संभवतः यशपाल में उस अनासक्त क्रांतिकारी के बीज डल गए थे, जिसका प्रतिफल आगे चलकर यशपाल के एक प्रखर क्रांतिकारी बनने में दिखता है. गुरुकुल के कठोर अनुशासन और प्रायोगिक अध्ययन-मंथन ने यशपाल के जीवन में परिश्रम, संयम और अध्यवसाय की नींव रख दी थी.