
मोदी के चलते रामलला से दूरी, शंकराचार्यों की नाराजगी कितनी जरूरी- कितनी मजबूरी?
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अयोध्या में 22 जनवरी को होने जा रहे राम मंदिर समारोह से देश के सभी शंकराचार्य दूरी बना रहे हैं. आखिर इस नाराजगी के क्या कारण हैं? शंकराचार्य महत्व न मिलने से नाराज हैं या अपने विशुद्धतावादी रवैये के चलते खुद ब खुद आम लोगों से दूर होते जा रहे हैं?
22 जनवरी को अयोध्या में श्रीराम जन्मभूमि मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा समारोह है. 500 साल के लंबे संघर्ष के बाद मंदिर निर्माण हुआ और अब उद्घाटन होने जा रहा है. इस समारोह को लेकर देश भर में जहां भारी उत्साह है वहीं कुछ लोग अनावश्यक रूप से विवाद खड़ा कर रहे हैं. राजनीतिक दलों के बीच तो वाद-विवाद का क्रम चलता रहता है पर धर्म जगत भी इससे अछ़ूता नहीं है. प्राण प्रतिष्ठा के तरीके, यजमान किसे होना चाहिए और किस नहीं, मंदिर के अधूरे निर्माण आदि को लेकर संत समाज खुद मुद्दा बन गया है. पूरी पीठ के स्वामी निश्चलानंद सरस्वती और द्वारिकापीठ के शंकराचार्य स्वामी अवमुक्तेश्वरा नंद ने तो इस समारोह से दूर रहने का ऐलान भी कर दिया है. अन्य शंकराचार्यों ने खुलकर ऐलान तो नहीं किया है पर ऐसा समझा जा रहा है कि वो भी इस समारोह से वे दूर ही रहने वाले हैं. राजनीतिक दलों की मजबूरी तो समझ में आती है क्योंकि उन्हें अपने वोट बैंक का भी ख्याल रखना होता है पर शंकराचार्यों क्यों दूरी बना रहे हैं इस समारोह से? आइये शंकराचार्यों की मजबूरी-कितनी है जरूरी की पड़ताल करते हैं.
शंकराचार्यों की नाराजगी के मुद्दे
ज्योतिष्पीठ के जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद सरस्वती महाराज ने कुछ दिन पहले ही राम मंदिर पर बड़ा बयान दिया. उन्होंने कहा कि आधे अधूरे मंदिर में भगवान को स्थापित किया जाना न्यायोचित और धर्म सम्मत नहीं है. उन्होंने कहा कि हम प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विरोधी नहीं बल्कि हितैषी हैं. इसलिए सलाह दे रहे हैं कि शास्त्र सम्मत कार्य करें.
उन्होंने कहा कि पूर्व में तत्कालीन परिस्थितियों को देखते हुए बिना मुहूर्त के राम की मूर्ति को सन 1992 में स्थापित किया गया था. लेकिन वर्तमान समय में स्थितियां अनुकूल हैं. ऐसे में उचित मुहूर्त और समय का इंतजार किया जाना चाहिए. इतना ही नहीं उन्होंने राम मंदिर ट्रस्ट के महासचिव चंपत राय सहित सभी पदाधिकारियों के इस्तीफे की भी मांग की.वो चंपत राय के उस बयान से नाराज हैं जिसमें उन्होंने कहा है कि 'राम मंदिर रामानंद संप्रदाय से जुड़े लोगों का है, शैव और शाक्त का नहीं.
अवमुक्तेश्वरानंद कहते हैं कि शंकराचार्य और रामानन्द सम्प्रदाय के धर्मशास्त्र अलग अलग नहीं होते. उन्होंने कहा कि अगर राम मंदिर रामानंद संप्रदाय का है तो उसे सौंप देना चाहिए. चारों पीठों के शंकराचायों को कोई राग द्वेष नहीं है लेकिन शास्त्र सम्मत विधि का पालन किये बिना मूर्ति स्थापित किया जाना सनातनी जनता के लिये उचित नहीं है.शंकराचार्य ने कहा कि निर्मोही अखाड़े को पूजा का अधिकार दिए जाने के साथ ही रामानंद संप्रदाय को मंदिर व्यवस्था की जिम्मेदारी दी जानी चाहिए.
जगन्नाथ पुरी के शंकराचार्य स्वामी निश्चलानंद सरस्वती को तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के राम लला की मूर्ति के स्पर्श से ही दिक्कत है. वो आपत्ती जताते हुए यहां तक कह गए कि 'प्रधानमंत्री वहां लोकार्पण करें, मूर्ति का स्पर्श करेंगे तो क्या मैं ताली बजाऊंगा?'

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