मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र की गिरफ़्तारी की कहानी
BBC
मध्यम कद और 80 की उम्र पार कर चुके बादशाह सफ़ेद रंग की पोशाक पहने हुए थे और उसी कपड़े की एक पगड़ी उनके सिर पर थी. उनके पीछे उनके दो सेवक मोर के पंखों से बनाए गए पंखे से उन पर हवा कर रहे थे. उनके मुँह से एक शब्द भी नहीं निकल रहा था. उनकी नज़रें ज़मीन पर गड़ी हुई थीं.
1857 में जब अंग्रेज़ों का दिल्ली पर फिर कब्ज़ा हो गया तो कैप्टन विलियम हॉडसन क़रीब 100 सैनिकों के साथ बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र को पकड़ने शहर से बाहर निकले.
जब हॉडसन ने हुमायूं के मकबरे का रुख़ किया तो उनके दल पर अभी भी दिल्ली की सड़कों पर मौजूद विद्रोहियों में से किसी ने फ़ायर नहीं किया.
हॉडसन को ज़रूर इस बात की फ़िक्र थी कि पता नहीं हुमायूं के मकबरे पर मौजूद लोग उनके साथ कैसा सलूक करें, इसलिए उन्होंने अपने आप को पहले मकबरे के पास मौजूद खंडहरों में छिपा लिया.
हाल ही में 1857 के विद्रोह पर किताब 'द सीज ऑफ़ डेल्ही' लिखने वाले और इस समय लंदन में रह रहे अमरपाल सिंह बताते हैं, 'हॉडसन ने मकबरे के मुख्यद्वार से महारानी ज़ीनत महल से मिलने और बादशाह को आत्मसमर्पण करने के लिए तैयार करने के लिए अपने दो नुमाइंदों मौलवी रजब अली और मिर्ज़ा इलाही बख़्श को भेजा.